अवधारणा ही सद्विवेक है । सद्विवेक स्वयं में सत्यता की विवेचना है जो स्पष्ट है । मूलतः यही सर्वशुभ एवं मांगल्य है ।
अनुभव की अवधारणा सत्य बोध के रूप में; अवधारणा (सम्यक-बोध) ही सत्य-संकल्प है । यही परावर्तित होकर शुभकर्म, उपासना तथा आचरण में फलित रूप में प्रत्यक्ष है । इसी का परावर्तित मूल्य ही धीरता, वीरता, उदारता, दया, कृपा और करूणा के रूप में प्रत्यक्ष है ।
सत्य में ही सम्यक-बोध होता है । असत्य ही कल्पना एवं भास होता है ।
हीनता, दीनता और क्रूरता से युक्त कर्म अशुभ होता है ।
स्व-मूल्य ही प्रवृत्ति और निवृत्ति का स्तुषि है । इसलिये
असत्य, अभिमान तथा दर्प से मुक्त; सत्य, सरलता, सहजता तथा सौजन्यता से युक्त कर्म व उपासना श्रेय कारक है ।
सत्य कामना की निरन्तरता से लक्ष्य की अवधारणा होती है । ज्ञान में ही उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति प्रत्यक्ष है ।
ज्ञान, विवेक सम्मत विज्ञान ही है जो पूर्ण है ।
सत्य और सत्यता में दृढ़ता ही श्रेयमय जीवन है ।
सत्यानुभूति ही सबका अभीष्ट है ।
शरीर से सम्पन्न होने वाले समस्त क्रियाओं का संचालन मन ही मेधस द्वारा करता है । मेधस से सभी नाड़ियाँ नियंत्रित हैं ।
शब्द का मूल रूप मन ही है । मेधस पर मन आस्वादन एवं स्वागत भावपूर्ण तरंगों का प्रसारण, संचालन नियंत्रण करता है उसके मूल में शब्द ही है ।