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आत्मा (मध्यस्थ क्रिया) के आनुषंगिक बौद्धिक प्रक्रिया व व्यवस्था में सत्य-संकल्प एवं सत्य-कल्पनापूर्ण मानसिकता की स्थिति पाई जाती है जो प्रसिद्ध कर्म उपासना ज्ञान पूर्ण है । यही क्षमता देव व दिव्य मानवीयता को प्रकट करती है । यही पूर्ण जागृति है ।

ऐषणासक्त बौद्धिक व्यवस्था में मानवीय तथा देव मानवीय स्वभाव प्रकट होता है । उसी के अनुरूप में मानसिक वातावरण की स्थितिशीलता है । ऐसी क्षमता ही सामाजिक चेतना ही सजगता एवं सतर्कता से परिपूर्ण होना पाया जाता है ।

विषयासक्त प्रवृत्ति व प्रक्रिया में अमानवीय आचरण होता है जो पाशविकता तथा दानवीयता के रूप में दृष्टव्य है । इनमें उसी के योग्य मानसिकता पाई जाती है । यही लुप्त-सुप्त कल्पना का कारण है । यही अजागृति तथा अपूर्ण सतर्कता का द्योतक है ।

श्रेय (जागृति) जिज्ञासु होने पर ही लुप्त-सुप्त कल्पनायें परिमार्जित होती है । फलतः दानवी व पाशवी प्रवृत्तियों से उदासीनता स्थिर होती है । साथ ही विवेकोदय होता है ।

श्रेय जिज्ञासा का उदय स्व-संस्कार, विधि-विहित अध्ययन तथा उसके अनुकूल वातावरण में होता है ।

विधि-विहित-अध्ययन निपुणता, कुशलता व पांडित्य ही है ।

अध्ययन एवं वातावरण ही संस्कार परिवर्तन के लिये समर्थ व्यवस्था है, जिसका गुणात्मक परिवर्तन ही आत्मबोध के लिये जिज्ञासा है ।

आत्मबोध ही सत्य जिज्ञासा का प्रधान लक्षण है । इसलिये-

अवधारणा ही अनुगमन तथा अनुशीलन के लिये प्रवृत्ति है, जो शिष्टता के रूप में प्रत्यक्ष होती है ।

प्रगति के लिये अवधारणा अनिवार्य है ।

जागृति के लिये अवधारणा एवं ह्रास के लिये आसक्ति प्रसिद्ध है । यही क्रम से निवृत्ति व अनावश्यकीय प्रवृत्ति है ।

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