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काल, क्रिया की अवधि है । इसी अवधि में आरोपित विचार व इच्छा ही असहज एवं निरारोपित विचार व इच्छा ही सहज है ।

मानव इकाई में ही जागृति के क्रम में भी निरारोपण क्षमता पाई जाती है । भ्रमवश आरोपण होता है ।

जो जैसा है उससे अधिक, कम अथवा नासमझना ही आरोपण है । यही अज्ञान है । यही अक्षमता है । यही भ्रम है ।

सत्ता में सम्पृक्त जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति की स्थिति-शीलता व सत्ता सहज पूर्णता के संबंध में ही आरोप या निरारोण क्रिया सम्पन्न होना पाया जाता है ।

प्रत्येक इकाई में रूप, गुण, स्वभाव, धर्म समाहित है । यही उसकी कार्यवत्ता है । इसी की गणना, परिमाण, प्रयोजन ज्ञान ही प्रकृति के प्रति निर्भ्रमतापूर्ण क्षमता का द्योतक है । यही प्रमाण है । यही सहजता है ।

सम्पूर्ण क्रियायें मूलतः रूप और शब्द भेद में दृष्टव्य हैं ।

पूरकता के बिना इकाई में अग्रिमता नहीं है ।

पूर्णता पर्यन्त इकाई पूरकता, उपयोगिता के लिए प्रवृत्त है ।

पूरकता ही इकाई में ह्रास व विकास के लक्षणों को प्रकट करती है । यही प्रधान उपादेयता भी है ।

इकाई में प्रकट होने वाले शब्दादि गुण ही सापेक्ष शक्तियाँ हैं । गुणविहीन इकाई नहीं है। इसलिये

मानव में सहज कामना का अभाव नहीं है । सहजता ही धर्म है । यही सुख, शान्ति, संतोष एवं आनन्द है । यही धारणा को स्पष्ट करता है, जो प्रत्यक्ष है ।

प्रत्येक कर्म-फल ही मानव के सुख का पोषक व शोषक सिद्ध हुआ है ।

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