सत्य और सत्यता के अनुभव-क्रम में व्यवधान नहीं है क्योंकि अनुभवक्रम-व्यवस्था सघन है । जागृति की कड़ियाँ सघन हैं । इसलिये-
सहजता आरोप से मुक्त है । आरोप ही न्यूनातिरेक मूल्यांकन है । स्वयं की न्यूनातिरेक मूल्यांकन क्रिया ही असहजता है ।
स्वयं का मूल्यांकन “ता-त्रय” की सीमा में होता है ।
“ता-त्रय” की सीमा में न हो ऐसा मानव इस पृथ्वी पर नहीं है ।
धर्म का वियोग नहीं है क्योंकि यह धारणा है । इसका प्रत्यक्ष रूप ही मानवीयता एवं अतिमानवीयता पूर्ण आचरण है जो सहजता का प्रधान लक्षण है । इसलिये अमानवीयता वादी आचरण ही असहज है ।
प्रकृति अपने में सम्पूर्णता के साथ वर्तमान है । यही अवधि है । इसलिये पूर्ण में समायी है । यही पूर्ण में सम्पूर्णता सहज सहअस्तित्व है । यही सम्पूर्णता का नित्य वर्तमान और ज्ञानावस्था के मानव में पूर्णता का प्रसव है । यही जागृति के लिये बाध्यता है ।
मानव के बौद्धिक क्षेत्र में पायी जाने वाली अनावश्यक कल्पनाओं का निराकरण ही दर्शन-क्षमता में गुणात्मक परिमार्जन है । यही गुणात्मक संस्कार-परिवर्तन, शिक्षा एवं जीवन के कार्यक्रम का योगफल है ।
दर्शन-क्षमता का उत्कर्ष ही अनुक्षण विक्षण है । यही मध्यस्थ क्रिया की क्षमता है । मध्यस्थ क्रिया ही दृष्टा है ।
मध्यस्थ क्रिया का चरमोत्कर्ष ही सम व विषम क्रिया का पूर्ण नियंत्रण है । यही क्षमता क्षण-क्षण मध्यस्थ व्यवधान से मुक्ति है ।
संस्कार पूर्वक ही बौद्धिक व्यवस्था-प्रक्रिया -क्षमता के आनुषंगिक है मानव सहज ऐषणा एवं विषयों की सीमा में प्रवृत्ति व निवृत्ति पूर्वक व्यस्त होना पाया जाता है जो प्रत्यक्ष है।