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प्रतीक को ही लक्ष्य समझने वाली बौद्धिक स्थिति में साम्प्रदायिकतापूर्ण आवेश, अभिमान और अहंकार पाया जाता है ।

प्रतीक-लक्ष्यवादी उपासना क्रम अपूर्णता की सीमा तक गौण एवं असामाजिक सिद्ध हुई है, क्योंकि उसमें मानव लक्ष्य का स्पष्टीकरण एवं प्राप्ति नहीं है । इसलिये विषमताएं हैं । ऐसे प्रतीक स्थान, जाति, भाषा, कला, चित्र, रचना, प्रतिमा, स्मारक और शब्द के भेदों से गण्य हैं ।

बौद्धिकता ही मानव के व्यक्तित्व का प्रत्यक्ष रूप है, न कि शरीर, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति में पाई जाने वाली बौद्धिक क्षमता का ही आदर-उपेक्षा, सम्मान-तिरस्कार, मान है । अस्तु बौद्धिकता ही मूल प्रवृत्तियाँ, संकेत ग्रहण एवं प्रसारण क्षमता है, यही आवश्यकता, इच्छा, विचार, आसक्ति या अनासक्ति, परिमार्जन, प्रभाव, तत्परता एवं बौद्धिकता है ।

मानव के लिये सहज समर्थ उपासना एक अनिवार्य कार्यक्रम है जो अमानवीयता से मानवीयता, मानवीयता से अतिमानवीयता की प्रतिष्ठा स्थापित करती है ।

सहअस्तित्व में अनुक्षण-विक्षण-वृत्ति से सहजावृत्ति होती है ।

क्षण-क्षण मध्यस्थ व्यवधान का तिरोभाव ही अनुक्षण-विक्षण वृत्ति है ।

अनुक्षण का तात्पर्य प्रत्येक क्षण में लगातार सहअस्तित्व चिन्तन, विचार क्रम में प्रमाणिकता का सहज प्रमाण प्रस्तुत हो जाता है, यही सहजावृत्ति है ।

सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति की सम्पृक्तता का ज्ञान ही (पूर्ण-दर्शन) क्षण-क्षण मध्यस्थ व्यवधान का तिरोभाव है । यही भ्रमित भाव व अभाव का तिरोभाव है । यही सहज प्रतिष्ठा व अवस्था है ।

सत्ता में सम्पृक्त प्रकृति सहज ज्ञान न होने से और अनुभव मूलक ज्ञान न होने से भय और प्रलोभनवश समस्त भ्रममूलक कार्य-व्यवहार, सोच-विचार को बनाये रखता है । यही सम्पूर्ण क्लेश का कारण है ।

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