1. परमाणु संरचना एवं अणु रचना
परमाणु संरचना को पहचानने की कामना मानव में सुदूर विगत से ही पायी जाती है ।
मानव विघटन विधि से मूल वस्तु तक पहुँचने के लिए सोच, विचार, प्रयोग किया । विघटन के अंत में कोई निश्चित मूल वस्तु की अपेक्षा भी बनी रही ।
उक्त मानसिकता के साथ प्रयोग करता हुआ मानव इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि किसी भी वस्तु को विघटित करते रहेंगे तो कोई ऐसी स्थिति में पहुँचेंगे जहाँ विघटित इकाईयाँ स्वचालित रूप में कार्य करता हुआ समझ में आता है । ऐसी कार्यरत इकाई को हम परमाणु कहते हैं । यह सब कैसे कार्यरत है इसको समझने की इच्छा भी मानव में बनी रही है ।
परमाणु के मध्य में एक या अधिक अंश और उसके सभी ओर परिवेशों में घूमता हुआ एक या अधिक अंश होने की व्यवस्था है । इससे कम में परमाणु की बात बनती नहीं । मध्य या परिवेश में अंश की संख्या बढ़ती जाये, यह मानव कल्पना में आ ही जाती है ।
इस संदर्भ में दो मुख्य प्रश्न ध्यान में आये - 1. परमाणु अंश परस्परता में पहचान कैसे बना पाये? 2. पहचानने के उपरांत वे व्यवस्था में क्यों हो गये? इस सोच को आगे बढ़ाने पर समझ में आया कि सहअस्तित्व ही इसका प्रधान कारण है, क्योंकि व्यापक वस्तु ऊर्जा में ही संपूर्ण एक एक वस्तु डूबी, भीगी, घिरी है । व्यापक वस्तु इन सब में पारगामी है । इस प्रकार सूक्ष्म से सूक्ष्म एवं बड़ी से बड़ी इकाई का व्यापक में संपृक्त रहने के आधार पर ऊर्जा सम्पन्न रहना स्पष्ट हुआ । ऊर्जा संपन्नतावश ही बल संपन्नता एवं चुम्बकीय बल संपन्नता होना समझ में आता है । इस बल संपन्नतावश ही सूक्ष्म परमाणु अंश में परस्परता को पहचानने और व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति है । एक दूसरे की पहचान को इस बल के प्रमाण के रूप में स्वीकार करने के लिए मानव का होना आवश्यक है । मानव ही प्रवृत्ति, कार्य, फलन को पहचानने के सहज अधिकार से संपन्न है । इसी क्रम में मानव जब एक दूसरे को पहचानते हैं, वहाँ व्यवस्था के रूप में ही अपने को प्रस्तुत करते हैं । जहाँ-जहाँ इस अर्थ को पहचानने में चूक किये रहते हैं, अव्यवस्था के रूप में कार्य व्यवहार करते हुए समस्या का कारण बनते हैं । इस तरह यह समझ में आता है कि प्रत्येक परमाणु अंश (व्यापक में संपृक्त होने के आधार पर) एक दूसरे को पहचानने के फलस्वरूप ही व्यवस्था में कार्यरत हैं । व्यवस्था का कार्यरूप निश्चित आचरण ही है ।