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आशय को प्रमाणित किये नहीं रहता है, इसलिए असीम अवकाश में घूर्णन रूप में कार्य करता हुआ, दूसरे अंश की तलाश में रहता है । अंततः वह किसी दूसरे परमाणु में समाहित हो जाता है, या दूसरे परमाणु अंश के साथ निश्चित परमाणु बना लेता है । इससे यह पता लगता है कि परमाणु गठन के उपरांत ही व्यवस्था का प्रकाशन, व्यवस्था प्रकाशित होने के क्रम में आचरण का प्रकाशन होता है । यही भौतिक, रासायनिक और जीवन क्रियाकलाप के रूप में स्पष्ट है ।

परमाणु संरचनाऐं एक से अधिक अंशों पर आधारित रहना स्पष्ट हो चुकी है, यह भी स्पष्ट हो चुकी है कि हर प्रजाति का परमाणु स्वचालित रहता है । इनका आचरण निश्चित होता है ।

हर परमाणु की रचना मध्यांश तथा परिवेशों में कार्यरत अंशों के रूप में समझ में आती है । परिवेशों में जितने भी अंश कार्य कर रहे हैं, उतने अंश मध्य में होते ही हैं, उससे अधिक होना भी संभावित है । परिवेशों का मतलब मध्यांश के सभी ओर चक्कर काटता हुआ अंशों से है । ऐसे परिवेश एक व एक से अधिक होते हैं । ये परिवेश चार से अधिक होने पर घटने और चार से कम होने पर बढ़ने की संभावना सदा-सदा बनी रहती है । ऐसे परमाणु विभिन्न संख्यात्मक स्थितियों में अपने-अपने प्रजाति के स्वरूप में विद्यमान रहते हैं । इन परमाणुओं में निहित मध्यांशों की संख्या के आधार पर भार निर्भर रहता है । इसी स्वरूप में निहित भार वश एक परमाणु दूसरे परमाणु को पहचानते हुए एकत्रित होते हैं, इसे हम अणु कहते हैं । ऐसे अणु ठोस, तरल, विरल रूप में पाये जाते हैं । ठोस रचनाएँ धरती जैसे बड़े-बड़े रचना के रूप में स्पष्ट हो चुकी हैं । तरल वस्तु ही रासायनिक संसार की आरंभिक वस्तु मानी जाती है । यह सब यौगिक विधि से घटित होते हैं । इसमें मानव का कोई योगदान नहीं होता, मानव केवल इसको अध्ययन करता है । अध्ययन इसलिए आवश्यक है कि इनके साथ सहज कार्य व्यवस्था को पहचानना संभव हो पाता है । रसायन द्रव्यों के आधार पर ही पुष्टि-तत्व, रचना-तत्व के योगफल में प्राणकोषाओं का क्रियाकलाप स्पष्ट होता है ।

भौतिक रासायनिक क्रियाकलाप के मूल में परमाणु और अणु ही क्रियाकलाप करता हुआ पहचानने में आता है । इस प्रकार अणु अपने स्वरूप में निरंतर व्यवस्था के रूप में ही काम करता है । व्यवस्था के रूप में काम करने का प्रमाण व्यवस्था क्रम में आगे की स्थिति गति स्पष्ट होने से है (वर्तमान होने से है) ।

प्रत्येक परमाणु और अणु अपने प्रजाति का एक सीढ़ी होना पाया जाता है । सीढ़ी होने का तात्पर्य उसकी यथास्थिति, उसकी निरंतरता से ही है । जैसे दो अंश के परमाणु के रूप में एक

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