2. विकासक्रम, विकास
विकास क्रम में अनेक प्रजाति के अणु, परमाणु, अणु रचित रचनाऐं सुस्पष्ट हैं । जैसे धरती एवं अनेक ग्रह-गोल अस्तित्व में विद्यमान है । ये सभी रचनाऐं ठोस, तरल, विरल के रूप में ही वर्तमान हैं । इस धरती पर ये तीनों स्थितियाँ सुस्पष्ट हैं । इनमें से तरल वस्तु के रूप में जो पानी है, वही सर्वप्रथम यौगिक क्रिया का वैभव है । पानी का धरती के संयोग के आधार पर अम्ल और क्षार होना पाया जाता है । इनका निश्चित मात्रा तक उदय होने के बाद ही ब्रह्माण्डीय ऊष्मा के संयोजन से, प्रतिबिंबन (परस्परता में पहचानने का आधार) प्रभाव से पुष्टि तत्व व रचना तत्व के रूप में द्रव्य रचनायें होना पानी में पाया जाता है । इसके मूल रूप को ‘काई’ कहा जाता है । ऐसे काई के अनन्तर ही प्राणकोषाओं से रचित रचनायें एककोशीय, द्विकोशीय, बहुकोशीय विधि से घटित हो चुकी है । यह एक रचना में विकास क्रम को प्रदर्शित करता है । यह धरती अपने में मृदा, पाषाण, मणि, धातु के रूप में छोटी-बड़ी रचना विद्यमान है । यौगिक क्रिया वैभव के रूप में प्राणकोषाओं से रचित रचनाओं को वनस्पति संसार कहते हैं । ये सभी वनस्पति संसार धरती से अभिन्न रहते ही हैं, धरती के साथ जुड़े ही रहते हैं । इससे यह पता लगता है कि धरती के रूप में वैभवित द्रव्यों के संयोजन से ही यौगिक क्रिया वैभव संपन्न होना और इसके मूल स्वरूप से भिन्न व्यक्त होने का उत्सव होना होता है । यही रासायनिक उर्मि है । रासायनिक द्रव्यों के उत्सव को हम उर्मि कह रहे हैं ।
हर प्राणकोषा में प्राण सूत्रों का होना पाया जाता है । इसी में रचना-तत्व व पुष्टि-तत्व निश्चित मात्रा में समाया रहता है और रचना विधि निहित रहता है । ऐसे प्राणसूत्र अपने में श्वसन क्रिया संपन्न रहते हैं । इनमें अपने जैसे सूत्रों को विपुलीकरण करने का उत्सव बना रहता है । इसके लिए रासायनिक द्रव्यों की उपलब्धि, निश्चित उष्मा का योग आवश्यक रहता ही है । ऐसी प्राणकोषायें जीवों के, मानव के, शरीर के, हड्डी के पोल में भरे रसों में निर्मित होना पाया जाता है और यह शरीर की आवश्यकतानुसार वितरित होता है । इसी के साथ प्राणसूत्रों के संयोजनवश अनेक सूत्र और कोषा निर्मित होते हैं । फलस्वरूप ऐसी कोशिकायें रसायन द्रव्यों के साथ, रक्त के रूप में अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखते हुए, शरीर की रचना में कार्य करता हुआ देखने को मिलता है । वनस्पति संसार में, रस संचार तंत्रणा में पत्ती और जड़ की क्रियाकलाप से रस संचय होता है, फलस्वरूप प्राणकोषायें बनती रहती हैं । इस प्रकार रचनायें, रचनाओं में विकास प्रवृत्ति, प्राणकोषाओं में समाहित रहना सुस्पष्ट है । इसका प्रमाण रचनाओं में विविधता ही है ।