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यथास्थिति है । यही एक सोपान है । इनका निश्चित आचरण होना ही इनका वैभव है । ऐसा निश्चित आचरण होना ही, आगे सोपान का आधार होना बन जाता है, बना ही रहता है । विभिन्न संख्यात्मक अंशों वाले परमाणु, अणुओं का निश्चित आचरण स्थापित हुआ ही रहता है । यही एक अद्भुत स्वयंस्फूर्त व्यवस्था स्वरूप, मानव के समक्ष सुस्पष्ट है ।

ऐसे भौतिक अणु-परमाणु रासायनिक क्रियाकलाप में भागीदारी करता हुआ प्रत्येक स्थिति गति के रूप में अध्ययन गम्य है । इन सभी अणु परमाणुओं का सुस्पष्ट प्रयोजन, धरती जैसी बड़ी-बड़ी रचना के रूप में स्पष्ट होता है । यह इस बात का द्योतक है कि धरती पर रासायनिक क्रिया आरंभ होने के पहले जितने प्रजाति के परमाणु अणु होना आवश्यक है, यह नियति सहज विधि से ही संपन्न हुआ रहता है । नियति सहज विधि का तात्पर्य ही सहअस्तित्व विधि से है । सभी प्रजाति के परमाणु-अणु से संपन्न होने के उपरांत ही यौगिक प्रवृत्ति व प्रक्रियायें संपन्न होती रहती है । इस धरती पर इसका गवाही सुस्पष्ट है ।

उक्त सभी प्रकाशन, पदार्थावस्था में अणु परमाणु प्रजाति के आधार पर होना, अणु परमाणुओं की प्रजातियाँ परमाणु अंशों की संख्या पर निर्भर रहना सुस्पष्ट है । अंशों की संख्या बदलना और बदलने के फलस्वरूप ही परिणाम है । ऐसे परिणाम निरंतर बने ही रहते हैं । इसी क्रियाकलाप का नाम है प्रस्थापन-विस्थापन । परमाणुओं में प्रस्थापन-विस्थापन, परिणाम सहज आशय को पूरा करने के लिए ही बना रहता है । इसी में एक दूसरे के साथ पूरक होने की प्रक्रिया का आशय भी संपन्न हुआ रहता है । किसी भी परमाणु से कुछ अंश विस्थापन होने से पूर्व वह परमाणु आवेशित रहना पाया जाता है, आवेशित होने के फलस्वरूप ही किसी परमाणु से विस्थापित होना संभव होता है । वह अंश किसी परमाणु में समा जाता है । इसी क्रिया का नाम प्रस्थापन है । इस प्रकार विस्थापित होने के बाद, विस्थापित परमाणु स्वभाव गति में होता है, प्रस्थापित परमाणु प्रस्थापित अंश को समा लेने के बाद उत्सवित होकर स्वभाव गति प्रतिष्ठा में होता है । स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही हर परमाणु, अणु, अणु रचनाऐं निश्चित आचरण को संपन्न करता हुआ स्पष्ट होता है । निश्चित आचरण ही व्यवस्था का प्रमाण है । इस क्रम में विकास का आशय समाहित रहता है ।

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