वर्तमान में पायी जाने वाली विभिन्न रचनायें, रचना में विकासक्रम की गवाही है । इस क्रम में मानव शरीर रचना तक का वैभव इस धरती पर स्पष्ट हो चुका है ।
प्राणकोषाओं से रचनायें छोटे बड़े पौधे, वृक्ष, लता, गुल्म के रूप में होते हुए आगे छोटे, बड़े जीवों के शरीर के रूप में अपने को स्पष्ट करती है । वनस्पति संसार की रचनाओं में कार्यरत प्राणकोषाऐं विकसित होकर रचना विधि में परिवर्तन को व्यक्त करती हैं जो जीव शरीर संसार की रचनायें, वह भी मानव शरीर तक की रचना का आधार बनती है, यह सुस्पष्ट हो चुकी है । प्रकृति में चार अवस्थायें दृष्टव्य है । पदार्थावस्था मृदा पाषाण आदि के रूप में । प्राणावस्था पेड़-पौधे, वनस्पति संसार के रूप में । जीवावस्था और ज्ञानावस्था शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में दृष्टव्य है । प्राणावस्था व जीवावस्था के शरीर के रचना क्रम में स्वदेज संसार होना भी पाया जाता है । यह ऐसे देखने को मिलता है कि वनस्पति संसार का अवशेष सूखा पत्ता आदि जब एकत्रित होते हैं, पानी और ऊष्मा पाकर अनेक भुनगी-कीड़े अपने आप पैदा हो जाते हैं । यही आगे अण्डज संसार के रूप में प्रदर्शित होते हैं । इस विधि से ये गुणवत्ता को स्थापित करता हुआ देखने को मिलता है । यह स्वेदज संसार जलचर, भूचर, नभचर के रूप में देखने को मिलता है । अण्डज संसार बलवती होते हुए आकाश में उड़ता हुआ पक्षियों के रूप में, बड़े-बड़े जलचरों और भूचरों के रूप में देखने को मिलते हैं । ऐसे अण्डज संसार पिण्डज संसार को जोड़ता है । पिण्डज संसार अपने में अण्डज संसार से विकसित रचना है । अण्डज, पिण्डज संसार के उपरांत रासायनिक द्रव्यों का विश्लेषण-संश्लेषण सप्त धातुओं के रूप में होता हुआ मानव शरीर रचना तक सुस्पष्ट हुई है ।
इन सारे रचनाओं का क्रम और मानव शरीर के अध्ययन से यही पता लगता है कि मानव शरीर में मेधस रचना की समृद्धि पूर्णतया सुस्पष्ट हुई है । इसका प्रमाण यही है कि मानव में कल्पना-शीलता, कर्मस्वतंत्रता और उसकी तृप्ति के रूप में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने को मेधस के माध्यम से व्यक्त करने योग्य इकाई है । मानवेत्तर संसार पहचानना, निर्वाह करने तक सीमित है । पहचानना, निर्वाह करने का आधार भी बल संपन्नता ही है । यही ऊर्जा संपन्नता, बल संपन्नता जीवंत स्वस्थ मानव में जानने, मानने, पहचानने, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित हो चुकी है । यह मेधसतंत्र समृद्ध होने की गवाही भी है । उक्त विधि से रचनाओं में विकास होने की रूप रेखा विदित होती है । इसके पहले यह भी स्पष्ट किया जा चुका है कि परमाणु में ही