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जीवन के भुलावेवश ही अथवा जीवन विद्या का भुलावा अथवा अज्ञात रह जाना ही शरीर को जीवन समझने की विवशता है। तभी हम सोचने के लिए बाध्य हो जाते है शरीर में होने वाली क्रिया को जीवन का सोना (निद्रा) मान लेते है। जबकि ऐसा होता नहीं है। इसका साक्ष्य है कि जड़-चैतन्यात्मक कोई परमाणु निष्क्रिय नहीं होता अर्थात् सतत क्रियारत रहता है।

चैतन्य क्रिया शरीर की अक्षमता को जानकर इसे चलाने और दौड़ाने की प्रेरणा की अक्षयता स्वभाव सिद्घ होते हुए शरीर द्वारा जितना कार्य कराना है अथवा शरीर जितना कार्य करने योग्य है उतना ही कराता है। इस प्रकार शरीर का सो जाना जीवन का सो जाना नहीं हुआ। शरीर के लिए आहार, निद्रा आदि क्रियाओं का प्रयोजन सिद्घ होता हैं। जीवन के लिए मूल्य और मूल्यांकन ही व्यवहारिक प्रयोजन सिद्घ होता है। शरीर निर्वाह ही जीवन तृप्ति नहीं है। जीवन की अनुग्रह बुद्घि से ही शरीर निर्वाह की व्यवस्था हो पाती हैं। अस्तु, हम इस निष्कर्ष पर आते है कि शरीर जीवन नहीं है, जीवन शरीर नहीं है। जीवन नित्य है, जीवन के लिए शरीर एक साधन है और माध्यम है।

जीवन में संचेतना का वैभव प्रकाशमान होता है। विकास के क्रम में जितने भी पद देखने को मिलते है जैसे - प्राण पद, भ्रांति पद, देव पद और दिव्य पद - इन पदों में जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति क्रियारत है। इनमें जीवन, संचेतना के रूप में अथवा क्रिया के रूप में अभिव्यक्त रहता ही है। जीवन एक परमाणु के रूप में होते हुए गठनपूर्ण होने के कारण उसका वैभव गठनशील परमाणुओं के सद़ृश नहीं होता। अस्तु, हम इस निष्कर्ष पर आते है कि अस्तित्व स्थिर होने के कारण जड़ परमाणु ही विकसित होकर चैतन्य पद में संक्रमित हो जाता है जो किसी भी कारण से पुन: जड़ परमाणु में नहीं बदलता। यही चैतन्य परमाणु, अक्षय बल अक्षय शक्ति संपन्न होने के कारण अपनी अक्षयता को गुणात्मक विकास और जागृति ही अस्तित्व में अनुभव पूर्वक स्वयं की अक्षयता को सिद्घ कर देता है। यही अस्तित्व में परमाणु का विकास और जागृति ही उसकी निश्चयता है।

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