मूल अवधारणाएँ
- द्वंद्व व “संघर्ष” के स्थान पर “समाधान” के रूप में यह “समाधानात्मक भौतिकवाद” प्रबंध के रूप में प्रस्तुत है।
- शास्त्र रूपी पुस्तक और यंत्र प्रमाण के स्थान पर “जागृत मानव ही प्रमाण का आधार” होना - यह प्रतिपादित है।
- भक्ति-विरक्ति, एकान्त, संग्रह, सुविधा और भोगवाद के स्थान पर सहअस्तित्ववाद और व्यवस्था में समाधान, समृद्धि, अभय (वर्तमान में विश्वास) इंगित होने के अर्थ में यह प्रस्तुत है।
- विचार में समाधान, अनुभव में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत है।
- “ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या” के स्थान पर “ब्रह्म सत्य, जगत शाश्वत्” होने के प्रतिपादन के रूप में प्रस्तुत है।
- रहस्यमूलक, आदर्शवादी चिंतन और अस्थिरता, अनिश्चयता मूलक, वस्तु केन्द्रित भौतिकवादी विचार के विकल्प के रूप में यह अस्तित्वमूलक, मानव केन्द्रित सहअस्तित्ववादी चिंतन प्रस्तुत है।