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एवं समझ से कम होता है।” इसीलिए चैतन्य प्रकृति गणितीय भाषा से व्याख्यायित नहीं हो पाती। इसीलिए हम गुण और कारणात्मक भाषा को भी सीखने के लिए बाध्य है।

गुण, घटनाओं के रूप में परस्पर वर्तमान होता हुआ देखा जाता है। जड़ प्रकृति में समविषमात्मक प्रभाव परस्पर इकाईयों में पड़ता है और स्वयं के समषमात्मक आवेशों को सामान्य बनाने के क्रम में मध्यस्थ शक्ति को कार्यरत होना देखा जाता है। कार्य ऊर्जा बढ़ना ही सम-विषम आवेश है इसी आवेश को सामान्य बनाने के लिए छिपी हुई ऊर्जा प्रभावशील रहती है, जबकि चैतन्य प्रकृति में समाधान और प्रमाणिकता के रूप में मध्यस्थ क्रिया प्रभावशील होती है। समाधान और प्रमाणिकता ही मानव परंपरा के रूप में स्वीकार है। इससे पता चलता है कि चैतन्य प्रकृति में ही मध्यस्थ क्रिया की पूर्ण प्रभावशाली परंपरा होने की व्यवस्था है। इसीलिए विकास होता है।

स्वभाव और धर्म को कारण-कार्य एवं कार्य-कारण पद्घति से समझने की व्यवस्था हैं। स्वभाव प्रत्येक इकाई में अर्थात् जड़-चैतन्यात्मक इकाई में मूल्यों के रूप में वर्तता है। मूल्य प्रत्येक इकाई में स्थिर होता हैं। धर्म अविभाज्य होता हैं। इसी कारणवश मानव में समझने की व्यवस्था है। किसी घटना के मूल के लिए सब आवश्यकीय सघन कारक तत्वों को स्पष्ट कर देना ही गुणात्मक भाषा हुई, जैसे :-

अव्यवस्था = दर्द = समस्या = गुणात्मक भाषा।

अव्यवस्था के कारक तत्व की समझ = घटना का अध्ययन

समस्या का कारण = कारणात्मक भाषा।

इसी तरह,

व्यवस्था की समझ = सुख = समाधान = गुणात्मक भाषा।

व्यवस्था के कारक तत्व की समझ = घटना का अवयव = नियतिक्रम = समाधान का कारक = कारणात्मक भाषा।

इस गवाही के साथ ही विकास का अभीष्ट स्पष्ट हो जाता है।

समाधान ही विभव का आधार हैं। समाधान पूर्वक ही प्रत्येक विकास की कड़ी अपने आप में प्रकाशित होती हैं। यही समाधान नित्य परंपरा और त्राण तथा प्राण होने के कारण यह स्पष्ट हो जाता है कि समाधान के पद में ही विकास और उसकी निरन्तरता का वैभव है। इस प्रकार मध्यस्थ क्रिया का स्वयं व्यवहारिक समाधान के रूप में नित्य प्रभावशील होना ही स्थिति के अर्थ को स्पष्ट कर देता है। समविषमात्मक आवेश निरन्तर समस्या का ही प्रकाशन है | इस तथ्य को हृदयंगम करने पर असंदिग्ध रूप में स्पष्ट हो जाता है कि संपूर्ण प्रकृति स्थिति में स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही रहती है जो मध्यस्थ क्रिया “आत्मा” के अनुशासन में

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