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अध्याय - 1

समाधान और द्वन्द्व

समाधानात्मक भौतिकवाद के नाम से मानव में अनेक प्रश्न उभरना स्वाभाविक है। जब से मानव सुनने-सुनाने योग्य हुआ, तब से भय और प्रलोभन वश ईश्वरवादिता क्रम में से ईश्वर को श्रेष्ठ तथा जीव-जगत का कर्त्ता, भरता, हरता मानता ही आया। कुछ समय बाद भौतिकता का नाम आया, तब से भौतिकतावादी, भौतिकता को अपने में द्वन्द्व ही बताते आये हैं। द्वन्द्व बताने वाले अपने को अत्यधिक वैज्ञानिक मान लिए हैं। विज्ञान को विधिवत अध्ययन मानते है। विधिवत अध्ययन का सार तर्क संगत होने से है। इस विधि से अथवा उपक्रमों से मानव ने भौतिक संसार में संधर्ष विधि से विकास को माना, जबकि आदर्शवादियों ने जगत् को ईश्वर की कृपा से उत्पन्न मान लिया।

द्वन्द्व कहने के मूल में अंतरविरोध और बाह्य विरोध नामक दो बातों की स्वीकारते हुए, अंतर्विरोध को विकास का आधार बताया गया। बाह्य विरोध को संघर्षपूर्वक स्व-वैभव अथवा स्वयं की ताकत को प्रदर्शित करने का आधार बताया गया। जबकि वास्तविकताओं का परिशीलन करने पर इसके विपरीत तथ्य उभर आए। जैसे :-

प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित संपूर्ण है।

  • प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है और समग्र व्यवस्था में भागीदार है।
  • प्रत्येक एक अपनी स्वभाव गति में विकास की ओर और आवेशित गति में ह्रास की ओर गतिशील होता है।
  • परस्पर नैसर्गिकता में ही आवेशित गति और स्वभाव गति का होना स्पष्टत: पाया जाता है।
  • जैसे यह धरती शून्याकर्षण विधि से अपनी स्वभाविक गति में निरतंर गतिशील है। यह अपने में से एक व्यवस्था है ही। समग्र व्यवस्था में भागीदारी का प्रमाण एक सौर व्यूह में भागीदारी के रूप में प्रमाणित है। सौर व्यूह में जितने ग्रह गोल है, उनके साथ अपनी गति को भागीदारी के रूप में अर्पित किया ही है। इससे यह सूत्र निकलता है कि “जो स्वयं व्यवस्था सहज रूप में नित्य वर्तमान रहता है, वह समग्र के साथ व्यवस्था में भागीदार हो पाता है।”

यह धरती अपने में व्यवस्था है। इसके साक्ष्य में इसी धरती पर चारों अवस्थाओं ने सहअस्तित्व को प्रमाणित किया है। इसी धरती पर पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था देखने को मिला है। यह सब

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