1.0×

होने वाली क्रिया है। यही अनुशासन मध्यस्थ क्रिया बल के रूप में अनुभव, शक्ति के रूप में प्रामाणिकता होती है। यह चैतन्य क्रिया की अभिव्यक्ति में होने वाला वैभव है। प्रत्येक चैतन्य क्रिया की प्रामाणिकता प्रकाशित होने की संभावना रहती हैं। उन संभावनाओं को सर्व सुलभ, सहज सुलभ बना लेना ही पुरुषार्थ का तात्पर्य है। शिक्षा पूर्वक अथवा प्रबोधन पूर्वक प्रामाणिकता आदान-प्रदान करने की वस्तु है। चैतन्य प्रकृति में ही समाधान की नित्य तृषा का होना एवं समाधानपूर्वक नित्य तृप्ति होना पाया जाता है। समाधान और उसकी निरन्तरता के अर्थ में ही संपूर्ण पदार्थ और संबंध का निर्वाह हो पाता है। समाधान ही जीवन सन्तुष्टि का स्रोत होने के कारण समाधान और प्रामाणिकता की परंपरा में ही चैतन्य प्रकृति की परंपरा अथवा संपूर्ण चैतन्य प्रकृति के तृप्त होने की व्यवस्था है। इस निष्कर्ष पर आते है कि चैतन्य प्रकृति में आदान-प्रदान होने वाली, पहचानने और निर्वाह करने की संयुक्त संप्रेषणा की स्वीकृति ही बोध के नाम से जानी जाती हैं। इसी को हृदयंगम कहा जाता है और ऐसा बोध ही अवधारणा है।

चैतन्य इकाईयों में पाया जाने वाला अक्षय बल और शक्तियों की सामरस्यता (प्रामाणिकता और समाधान) स्वयं की परस्परता में और परस्पर इकाईयों में त्रिकालाबाधित साम्य हैं। ऐसी सामरस्यता सार्वभौम रूप में, हम मानवों में प्रामाणिकता और समाधान संपन्न होने की व्यवस्था समीचीन है। यही संपूर्ण अनुसंधान, शिक्षा, व्यवस्था, चरित्र और उसकी निरन्तरता का अक्षय स्रोत हैं। मात्रा विज्ञान, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान, व्यवस्था विज्ञान और व्यवहार विज्ञान के मूल रूप में यही प्रमाणिकता और समाधान ही अक्षय स्रोत अक्षय त्राण और अक्षय प्राण है।

शिक्षा-संस्कार ही बोध और अवधारणा का एकमात्र स्रोत है। ऐसे स्रोत को सार्थक रूप देने, उसमें प्रामाणिकता और समाधान की निरन्तरता को बनाये रखना चैतन्य प्रकृति में, से ज्ञानावस्था की इकाई का दायित्व और वैभव होता हैं। जड़ प्रकृति में अंशों का आदान-प्रदान होता हैं। परमाणुओं के स्तर में जिसमें प्रस्थापन होता है वह पहले से ही सामान्य गति में रहता है, जिसमें विस्थापन होता है उसके अनन्तर वह भी सामान्य गति में होना पाया जाता है। सामान्य गति में होने के लिए निरन्तर मध्यस्थ क्रिया में बल समाहित रहता है जिसे हम छिपी हुई ऊर्जा कहते है।

स्वनियंत्रण के अर्थ में ही मध्यस्थ शक्ति क्रियाशील होती है। नियन्त्रण में ही प्रत्येक जड़-चैतन्यात्मक इकाई सुरक्षित रह पाती हैं। अर्थात् उसका अस्तित्व यथावत् बना रहता है। चैतन्य प्रकृति में नियन्त्रण को समाधान और उसकी निरन्तरता के अर्थ में देखा जाता है। इसी बिन्दु में भौतिकता, बौद्घिकता और अध्यात्मिकता का अविभाज्य वैभव दिखाई पड़ता है क्योंकि चैतन्य परमाणु अनुभव पूर्वक ही जागृत होता है। फलत: समाधान का प्रेणता, उद् गाता और प्रबोधक हो पाता है। इसी के परिणाम स्वरुप प्रबोधनपूर्वक,

Page 51 of 217
47 48 49 50 51 52 53 54 55