1.0×

प्राक्कथन

यह मूल प्रबंध रूपी पुस्तक “समाधानात्मक भौतिकवाद” सहज नाम से प्रस्तुत है। यह अस्तित्व सहज सहअस्तित्व रूपी तथ्यों की अभिव्यक्ति है और मानव सहज ज्ञान विवेक व विज्ञान सम्मत तर्क संगत है। वाद का अर्थ भी यही है - एक संवाद। संवाद का मतलब है प्रयोजनों के अर्थ में तर्क। मानव अपने में पूर्णता के अर्थ में किये गए वार्तालाप का संवाद, वाद, तर्क करता है और मनुष्येत्तर प्रकृति के साथ निरीक्षण, परीक्षण, सर्वेक्षणपूर्वक विश्लेषण करता है। इसी क्रम में, यह वांङ्गमय, मानव कुल के सम्मुख प्रस्तुत हुआ।

मानव कुल, सुदूर विगत से ही, दर्शन, विचार (वाद) और शास्त्र विधाओं में अपने को संप्रेषित करने का प्रयास करते आया है। इसी क्रम में प्रस्तुति स्वरूप एक प्रमाण है। इस प्रस्तुति के नामकरण से संबंधित स्वीकृतियाँ मानव सहज है। इसीलिए यह सार्वभौम है। यह भी देखा गया कि मानसिक रूप में स्वीकृतियाँ होते हुए भी जिम्मेदारी के साथ व्यवहार में प्रमाणित होने में अवश्य ही परंपरा से भिन्नता होना पाया गया। जैसा इसका शीर्ष है।

पहले से हम ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ से परिचित हैं। उसकी स्वीकृति अर्थात् द्वन्द्व के अर्थ में मानव को संघर्ष समझ में आता है। उसको सदा-सदा के लिए मानव कुल ने स्वीकारा नहीं। जबकि परंपरा में अपेक्षा के रूप में समाधान समाया हुआ देखा जाता है, जैसा - मेधावियों के सम्मुख द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद, विज्ञान शिक्षा के आधार रूप में प्रस्तुत हुआ है। इसका प्रमाण है कि सारा विज्ञान सूत्र द्वन्द्ववादी है ही। विज्ञान सूत्र का प्रमाण यंत्र होने के आधार पर शिक्षा परंपरा इसका धारक-वाहक है। इसी के आधार पर अर्थात् ‘द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद’ के आधार पर ही ‘कामोन्मादी मनोविज्ञान’ सर्जित होना देखा गया। ऐसे मनोविज्ञान के आधार पर ही हम मानव ‘भोगोन्मादी समाजशास्त्र’ और ‘लाभोन्मादी अर्थशास्त्र’ को शिक्षा परंपरा में स्वीकार लिए। इसी द्वन्द्ववादी जंगल में मूल्य, चरित्र, नैतिकता को खोजे जा रहे हैं। अभी तक यह किसी देश, काल में प्रमाणित नहीं हो पाया है।

इन्हीं प्रश्नों के उत्तर या समाधान रूप में जो सहअस्तित्व सहज नियम, प्रक्रिया और फलन है, इसी के यथावत संप्रेषित करने के क्रम में इस पुस्तक को प्रस्तुत किया है।‘समाधानात्मक भौतिकवाद’ मूलत: व्यवस्था केन्द्रित अभिव्यक्ति, संप्रेषणा है। यह अस्तित्व में पाए जाने वाले मनुष्येत्तर संपूर्ण प्रकृति का अध्ययन सहज निश्चय के आधार पर निर्भर है। इस प्रस्तुति के पहले अस्तित्व सहज वैभव को समझना एक आवश्यकता रही है, इसकी आपूर्ति सहज संभव हो गई।

Page -2 of 217
-5 -4 -3 -2 -1 1 2 3 4