और भीगा हुआ है। डूबा, घिरा दिखना स्वयं एक दूसरे के बीच में जो वस्तु है- इसी को देखना हुआ, यही सत्ता है।
भ्रम :- रासायनिक, भौतिक वस्तुएँ ठोस, तरल और विरल रुपों में विद्यमान हैं। विरल अवस्था में भी प्रत्येक अणु अथवा सम्मिलित एक से अधिक अणु “एक” के रूप में ख्यात हैं। इसी भांति परमाणु में निहित अंशों में, उन अंशों को यदि विखण्डित किया जाये तो प्रत्येक खंड “एक” ही कहलाएगा। यह क्रिया व्यवहार रूप में तो होती नहीं तथापि मानव की कल्पना सहज वैभव को गणित के रूप में पहचाना गया है। गणित विधि से मूलत: मानव की कल्पनाशीलता विधि से, विखंडन की परिकल्पना है। इस विधि से भी, परमाणु में निहित एक अंश को, अनेकानेक खंडों में विभक्त करने के पश्चात भी प्रत्येक खंड “एक” ही कहलाता है। इस प्रकार किसी का तिरोभाव नहीं हो सकता। इस सत्य के खिलाफ मानव की कल्पनाशीलता प्रादुर्भाव और तिरोभाव के चक्कर में पड़कर अथवा भ्रम में ग्रसित होकर परेशान ही हुई है। अस्तित्व में कोई ऐसी चीज नहीं है, जो पैदा होती हो अथवा जो है वह मिट जाता हो; यह दोनों क्रियाएँ अस्तित्व में नहीं हैं। इसी भ्रमपूर्ण कल्पनावश मानव परेशान रहा हैं। इससे यह भी समझ में आता है कि “जो था, वही होता है; जैसे अस्तित्व में पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था और ज्ञानावस्था थी”। इसकी गवाही इस धरती पर स्पष्ट हैं। इसका दृष्टा मानव ही हैं। इस ज्वलंत उदाहरण से “जो था वही होता है, और जो था नहीं वह होता नहीं।”
इस मुद्दे पर बुद्घिजीवी अपने विवेक का प्रयोग कर सकते है । इस धरती के पहले किस धरती पर ये चारों अवस्थायें कहाँ थी, यह पूछ सकते हैं। इसमें दो दोष ऐसा आता है - देश और काल। अस्तित्व सहज वैभव में अर्थात् अस्तित्व सहज नित्य वर्तमान रुपी वैभव में देश और काल हस्तक्षेप नहीं कर पाते।
भ्रमित मानस :- वर्तमान की अक्षुण्णता को अथवा निरंतरता को किसी और विधि से प्रयोग करना संभव नहीं हैं। जो कुछ भी विधियाँ है, वे सब अस्तित्व सहज है। उन सबकी निरंतरता है। किसी भी एक और विधि को देश, काल में सीमित नहीं किया जा सकता। जब कभी भी कोई बात सीमित होती है, वह निषेध ही है। अद्भुत बात यह है कि अस्तित्व में निषेध नहीं है। निषेध का स्थान नहीं है, निषेध का गति नहीं है, निषेध का स्थिति नहीं है। निषेध शब्द आप हमारे सम्मुख आते रहा है यह मानवकृत ही है। उसी क्रम में यहाँ मानव उपयोग किया गया है। अब यह प्रश्न होता है कि निषेध शब्द है क्या? इसका सहज उत्तर यही है कि “यह भ्रमित मानस का प्रकाशन है।” यह भ्रमित कल्पना का प्रकाशन है और भ्रमित इच्छाओं का प्रकाशन हैं। इन सभी प्रकार से भ्रमित प्रकाशन का आधार केवल मानव ही हैं।