1. 3.28 जागृति पूर्ण जीवन मानसिकता ही स्वायत्तता है जो मानव परंपरा में ही प्रमाणित होता है।
  2. 3.29 ज्ञानावस्था में मानव भ्रमवश पीड़ित अथवा जागृतिपूर्वक सुखी होना स्पष्ट है।
  3. 3.30 जीवंत मानव सहज मानसिक निर्णयों के आधार पर क्रिया-प्रक्रिया के विश्लेषण से मूलत: मानसिकता स्पष्ट होती है।
  4. 3.31 मानव परंपरा में सार्थकता, सफलता जागृति है।
  5. 3.32 जागृत परंपरा में, से, के लिए सहअस्तित्व में अनुभव सहज समझ सहित परमाणु अंश, परमाणु, अणु, अणु रचित रचना, यौगिक क्रिया, रसायनिक उर्मी, प्राण सूत्र रचना विधि, प्राण कोषा, प्राण कोषाओं से रचित रचना बीज−वृक्ष विधियों के विकास क्रम सार्थक होना स्पष्ट होता है और परमाणु में विकास, गठनपूर्णता, जीवन पद, जीवनी क्रम, जीवन जागृति क्रम, जागृति स्पष्ट होता है।
  6. 3.33 जागृत मानव परंपरा में ही भौतिक, रासायनिक एवं जीवन क्रियायें सहअस्तित्व में अध्ययन सम्पन्नता जागृत मानव समझा रहता ही है।
  7. 3.34 जागृति हर मानव में, से, के लिए मौलिक अधिकार है।
  8. 3.35 जागृति ही मानव में, से, के लिए मौलिक स्वत्व है।
  9. 3.36 चारों अवस्थाओं के साथ ही मानव का होना स्पष्ट है। जीने के लिए जागृति आवश्यक है।
  10. 3.37 हर मानव का अभिव्यक्ति सम्प्रेषणा और प्रकाशन में जागृति या भ्रम स्पष्ट होता है।
  11. 3.38 हर नर-नारी जागृत होना व रहना चाहते हैं।
  12. 3.39 हर नर-नारी जागृति क्रम में भ्रमित तथा जागृति पूर्ण विधि से प्रमाणित होते हैं।
  13. 3.40 हर मानव को सदा जागृति में संपन्न होने वाली आशा, विचार, इच्छा, संकल्प, प्रमाण, अनुभव बोध, साक्षात्कार, तुलन, आस्वादन क्रियाओं का पहचान होना है। क्रियाओं को पहचानना ही जीवन की सम्पूर्ण पहचान है।
  14. 3.41 मन वृत्ति में, वृत्त चित्त में, चित्त बुद्धि में, बुद्धि आत्मा में और आत्मा सहअस्तित्व में अनुभूत होना ही ‘स्व’ निरीक्षण परीक्षण है।
  15. 3.42 जागृत मानव परिभाषा सूत्र के आधार पर मानवीयता सहज व्याख्या है मन:स्वस्थता सहज प्रमाण है।
  16. 3.43 मानव इन पाँच कोटि में गण्य है, अमानव कोटि में पशु मानव और राक्षस मानव, मानव कोटि में मानव, अतिमानव कोटि में देव मानव और दिव्य मानव।
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