- 4.27 जागृति का प्रयोजन मानवत्व सहित सहअस्तित्व सहज प्रमाण परंपरा में ही भौतिक-रासायनिक वस्तुओं का सदुपयोग, प्रयोजनशील होना और जीवन क्रिया तथा जागृति को प्रमाणित करना और मूल्यांकन करना है।
- 4.28 भौतिक-रासायनिक वस्तु का उपयोग, सदुपयोग, प्रयोजन का प्रमाण शरीर पोषण-संरक्षण, समाज गति में नियोजन है।
- 4.29 सदुपयोग का प्रयोजन व्यवस्था में पूरकता सहज प्रमाण है।
- 4.30 प्रमाणशीलता का साक्ष्य आवर्तनशीलता व समाधान समृद्धिकरण में नियोजन है।
- 4.31 आवर्तनशीलता का प्रयोजन, बार-बार घटित होना है।
यथा:
- 1) संगठन-विघटन, विघटन-संगठन, मृदा-पाषाण मणि-धातु की ओर, मणि-धातु मृदा-पाषाण की ओर
- 2) रचना-विरचना, विरचना-रचना, बीज वृक्ष की ओर, वृक्ष बीज की ओर
- 4.32 सार्वभौमता का प्रयोजन मानव इकाई अथवा ज्ञानावस्था रूपी इकाई में, से, के लिए ज्ञान, विवेक, विज्ञान विधा से स्वीकृति सहज पूरकता उपयोगिता और दर्शन सहित विचार व्यवस्था में भागीदारी सहजतापूर्वक सार्वभौमता अखण्डता परंपरा नित्य समीचीन होने रहने से हैं।
- 4.33 सर्व मानव में, से, के लिए जागृति सहज ज्ञान, विवेक, विज्ञान, योजना पूर्वक किया गया कार्य-व्यवहार, अखण्ड समाज सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी ही नियति है।
- 4.34 नियति = सहअस्तित्व सहज नियम, नियंत्रण, संतुलन पूर्वक विकास और जागृति मानव में, से, के लिए प्रमाणित होने रहने से है।
- 4.35 सहअस्तित्व मानव परंपरा में नित्य प्रभावी होना ही नियति है।
- 4.36 नित्य वर्तमान ही सहअस्तित्व है।
- 4.37 नियति विधि से परिणाम परिवर्तन होते हैं। फलत: विकास व जागृति प्रमाणित होता है।
- 4.38 नियति नित्य प्रभावी है। यह वर्तमान है।
- 4.39 ज्ञानावस्था नियति क्रम में प्रमाणित वैभव है।
- 4.40 सर्व मानव में, से, के लिए मानवत्व सहित व्यवस्था परिवार में प्रमाणित होना और स्वराज्य मूलक परिवार व्यवस्था में भागीदारी करने के रूप में स्पष्ट होता है।