करूणा = क्षमता अर्हता हो, योग्यता-पात्रता न हो ऐसी स्थिति में योग्यता-पात्रता को स्थापित करना।
(ख) मानवीय दृष्टि
मानवीय दृष्टि न्याय, धर्म, सत्य सहज विधि से परिभाषित व्यवहार व्यवस्था में सार्थक है, व्यवहृत है।
न्याय = परिवार संबंध, अखण्ड समाज संबंध, सार्वभौम व्यवस्था सम्बन्धो में मूल्य निर्वाह, मूल्यांकन, उभय तृप्ति संतुलन में भागीदारी।
धर्म (समाधान) = जागृत मानव परिवार में समाधान-समृद्धि सहज अखण्ड समाज सूत्र, सार्वभौम व्यवस्था में प्राकृतिक संतुलन में-से-के लिये संबंधों की पहचान व निर्वाह परंपरा के रूप में मौलिकता की निरंतरता, मूल्यांकन, परस्परता में तृप्ति संतुलन अर्थात् समाधान प्रमाण वर्तमान = सुख।
सत्य = न्याय व समाधान प्रमाणित होना ही सहअस्तित्व रूपी परम सत्य में अनुभव प्रमाण। यही मानव संचेतना है।
4.6 (13) मानव संचेतना-चेतना
संचेतना =
- 1. पूर्णता के अर्थ में अपेक्षा समझ प्रमाण ही संचेतना, समझ पूर्णता सहज प्रमाण परंपरा ही चेतना, क्रियापूर्णता, आचरणपूर्णता के अर्थ में वर्तमान, जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करना ही मानव चेतना, देव चेतना, दिव्य चेतना है।
- 2. संज्ञानीयता में संवेदनाये नियंत्रित रहना ही प्रमाण - संज्ञानीयता अर्थात् जानने मानने की सम्पूर्ण वस्तुयें सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व ही है।
सहअस्तित्व में ही जीवन क्रियाकलाप, शारीरिक रचना-विरचना, रासायनिक क्रियाकलाप, भौतिक क्रियाकलाप, शरीर व जीवन का संयुक्त क्रियाकलाप के रूप में मानव क्रियाकलाप है। यही जागृति है। इसको समझना ही जागृति है। सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में मानव ही संज्ञान सम्पन्न अथवा मानव चेतना ही संज्ञानीयता है।