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  1. 2) हर अवस्था में वैभव रत हर एक-एक अपने ‘त्व’ व्यवस्था, समग्र व्यवस्था में भागीदारी सहित उपयोगिता, पूरकता, उदात्तीकरण सहज प्रमाण व वर्तमान है।
  2. 3) सहअस्तित्व में पदार्थावस्था परिणामानुषंगीय यथास्थिति सहज क्रिया के रूप में, प्राणावस्था बीजानुषंगीय विधि से यथास्थिति में होना, जीवावस्था सहज वैभव वंशानुषंगीय विधि रूप में होना और ज्ञानावस्था में मानव, मानव चेतना मूल्य शिक्षा संस्कारानुषंगीय व्यवस्था अर्थात् ज्ञान-विवेक-विज्ञान सम्पन्नता पूर्वक व्यवस्था सहज प्रमाण व वर्तमान है। अस्तु, जागृति पूर्वक अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था यही समग्र व्यवस्था में भागीदारी के रूप में प्रमाणित होता है। मानव परंपरा में 'न्याय’ सदा-सदा समीचीन है।

7.2 (5) न्याय का स्वरूप

मानव संबंधों में निहित मूल्यों का निर्वाह, मूल्यांकन, परस्परता में समाधान, समृद्धि, अभय (वर्तमान में विश्वास), सहअस्तित्व सहज आचरण प्रमाण और निरंतरता ही वैभव न्याय सहज स्वरूप है।

मानवेत्तर अर्थात् जीव, वनस्पति, पदार्थ संसार के साथ नियम-नियंत्रण पूर्वक संतुलन और निरंतरता ही नित्य वैभव स्वरूप है।

अखण्ड समाज व सार्वभौम व्यवस्था सूत्रित व्याख्यायित रहना न्याय का स्वरूप है।

समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी व भागीदारी सहज परंपरा न्याय सहज स्वरूप है।

7.2 (6) आचरण में न्याय

मानवीयता पूर्ण आचरण

पुत्र-पुत्री का माता-पिता के साथ विश्वास निर्वाह निरंतरता :-

गौरव, कृतज्ञता, प्रेम, सरलता, सौम्यता, अनन्यता भावपूर्वक वस्तु व सेवा अर्पण-समर्पण रूप में

माता-पिता का पुत्र-पुत्री के साथ विश्वास निर्वाह निरंतरता :-

ममता, वात्सल्य, प्रेम, उदारता, सहजता, अनन्यता भावपूर्वक वस्तु व सेवा अर्पण-समर्पण रूप में

गुरु शिष्य के साथ विश्वास निर्वाह निरंतरता :-

प्रेम, वात्सल्य, ममता, अनन्यता, सहजता, उदारता भावपूर्वक प्रबोधन प्रक्रिया सहित वस्तु व सेवा अर्पण-समर्पण रूप में

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