- 12. परंपरा में जागृति सहज अखण्ड समाज सहज अर्थ में सार्वभौम व्यवस्था प्रमाणित रहना न्याय है।
- 13. परंपरा में स्वत्व, स्वतंत्रता, अधिकार सहज स्वराज्य प्रमाणित रहना न्याय है।
- 14. परंपरा में परिवार मूलक स्वराज्य वैभव सुलभ रहना न्याय है।
- 15. परंपरा में जागृति सहज वैभव सुलभ रहना न्याय है।
- 16. परंपरा में मानवत्व प्रमाण रूप में वर्तमान रहना न्याय है।
- 17. परंपरा में परिवारों में स्वास्थ्य-संयम सुलभता रहना न्याय है।
- 18. परंपरा में मानवीयता पूर्ण आचरण, जागृति पूर्वक व्यवहार किया जाना ही न्याय है।
- 19. परंपरा में अनुभव मूलक, शिक्षा-दीक्षा, दीक्षान्त (परंपरागत), विवाहोत्सव कार्यक्रम न्याय और स्वतंत्रता है।
- 20. परंपरा में विवाहोत्सव में परस्पर जागृत होने रहने का सत्यापन सहज प्रमाण, व्यवस्था में जीने का संकल्प सहित दाम्पत्य स्वीकृति न्याय है।
- 21. परंपरा में ऋतु-काल-संतुलन उत्सव न्याय है।
- 22. परंपरा में मानव संस्कृति-सभ्यता, विधि-व्यवस्था और व्यवस्था सहज आयोजनोत्सव न्याय है।
7.2 (9) उत्पादन कार्य में न्याय
हर परिवार में आवश्यकता से अधिक तादात में उत्पादन, उत्पादन का स्रोत मानव द्वारा मानवेत्तर प्रकृति में संतुलन जिसकी पूरकता, उपयोगिता, उदात्तीकरण प्रणाली वर्तमान रहे, इन तथ्यों पर जागृत रहते हुए उत्पादन कार्य में हर परिवार का स्वावलम्बी रहना आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक उत्पादन सहज प्रमाण भी न्याय है।
हर परिवार में सामान्य व महत्वाकाँक्षा संबंधी वस्तुओं की आवश्यकता निर्धारित होती है। इसी क्रम में दश सोपानीय आवश्यकतायें व्यवस्था में आवश्यकतायें उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता स्पष्ट हो जाती है। यह न्याय है।
- 1. शरीर पोषण-संरक्षण व समाज गति के लिये आवश्यकीय वस्तुओं का उत्पादन करना न्याय है।
- 2. हर परिवार द्वारा आवश्यकता से अधिक उत्पादन करना न्याय है।
- 3. कृषि-पशुपालन रत परिवार में पानी उपचार का संरक्षण एवं फसल का उपचार (फसल संरक्षण), बीज खाद स्वायत्तता का होना न्याय है।