अणुओं का भार संपन्न रहना स्वभाविक है । इसी भार के कारण, एक अणु के दूसरे अणु के साथ निश्चित अच्छी दूरी में रहते हुए जुड़ने की प्रवृत्ति बनी रहती है । ऐसी प्रवृत्तियों से परमाणु, अणु, अणुओं से रचित बड़े-बड़े पदार्थ, पिण्ड मानव के सम्मुख प्रस्तुत हैं, जैसे यह धरती । इस धरती के साथ धरती से जुड़ी हुई सभी वस्तु, धरती के वातावरण तक, ठोस-ठोस के साथ, तरल-तरल के साथ, विरल-विरल के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करते हैं । इसके लिए जो विन्यास धरती और धरती के अंगभूत वस्तुयें करते हैं, उन्हें ऊपर से गिरना, दौड़ना, उड़ना आदि नाम देते हैं । ऊपर से वही सब चीजें नीचे गिरती है, जो ठोस और तरल के रूप में रहती है । तरल-तरल वस्तु के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करने की आतुरता कातुरता में जो विन्यास करता है, उसे वर्षा अथवा प्रवाह कहते हैं । इसी प्रकार से जो ठोस वस्तु ऊपर से गिरती है, वह धरती के साथ होने वाला विन्यास है, जो उस वस्तु का धरती के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के प्रभाव में होता है । इसी विन्यास को गुरुत्वाकर्षण का नाम दिया है । वास्तव में यह ठोस वस्तु का, ठोस वस्तु के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करने का विन्यास ही है । यही सम्मानजनक स्वीकृति है । गुरुत्वाकर्षण में छोटे बड़े की परिकल्पना दौड़ती है । सहअस्तित्व रूप में यह देखा गया है कि प्रत्येक एक अपने वातावरण सहित संपूर्ण है । इसमें छोटा बड़ा होता ही नहीं है । इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि प्रत्येक एक अपने त्व सहित व्यवस्था है । ये दोनों सिद्धान्त स्वभाव गति और निश्चित आचरण के योगफल में संपन्न होता हुआ देखने को मिलता है । इसी क्रम में प्रत्येक वस्तु इस धरती का अंगभूत होने के फलस्वरूप, धरती के साथ सहअस्तित्व को निभाना एक स्वभाविक प्रवृत्ति है । इस प्रवृत्ति का विन्यास इस धरती के वातावरण तक मर्यादित रहना पाया जाता है । यह धरती भी अपने वातावरण सहित संपूर्ण है । संपूर्णता में समाहित जितने भी अंग अवयव है, ये सब संपूर्ण के साथ मर्यादित रहना पाया जाता है । मर्यादित का तात्पर्य निश्चित विन्यास से निश्चित आशय को प्रमाणित करने से है । ऐसे निश्चित आशय ठोस - ठोस के साथ, तरल - तरल के साथ, विरल - विरल के साथ सहअस्तित्व को प्रमाणित करना ही है । सहअस्तित्व को प्रमाणित करने के क्रम में जो कुछ भी क्रिया होता है, उसे हम विन्यास कहते हैं । इसका फलन सहअस्तित्व का प्रमाण ही है । इस विधि से सहअस्तित्व ही अस्तित्व होने का समझ पूरा होता है ।

सापेक्षता में छोटे बड़े का बोध होता है । संपूर्णता ओझिल हो जाता है । संपूर्णता में ही प्रत्येक एक का सम्मान हो पाता है, मूल्यांकन हो पाता है । ऐसा मूल्यांकन और सम्मान प्रतिष्ठा की पहचान करने वाला मानव ही है । मानव जब संपूर्णता के साथ सहअस्तिव में प्रत्येक एक को

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