प्रमाण मूल्य, चरित्र, नैतिकता के रूप में है । इसे सार्वभौम रूप से अथवा सर्वमानव में सफल करना ही अथवा होना ही जागृत मानव परम्परा का वैभव है । इसी आधार पर हर मानव स्वयं में मानवत्व सहित व्यवस्था हो पाता है, समग्र व्यवस्था में भागीदारी कर पाता है, अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था में भागीदारी कर पाता है । अतः अस्तित्व में हर इकाई मात्रा के रूप में ख्यात है, मानव भी मानवत्व को पहचानकर निश्चित मानवीय आचरण पूर्वक मानवीय लक्ष्य को प्रमाणित करते हुए मात्रा के रूप में गण्य होता है । इस प्रकार हर परमाणु मूल मात्रा के रूप में हर रचना मात्र के रूप में गण्य है ।

10. गुण, स्वभाव, धर्म

गुण अपने स्वरूप में सम, विषम, मध्यस्थ क्रिया और प्रवृत्तियाँ है । इनके फल परिणाम के आधार पर यह आंकलित होता है । सृजनकारी संयोजन क्रियाकलाप सम प्रवृत्ति के नाम से इंगित कराया गया है । विभव कार्य के विपरीत विघटन, विध्वंसकारी क्रियाकलाप और प्रवृत्ति को विषम कहा गया । जिस योग-संयोग विधि से जितनी भी रचनायें बनती हैं, उसको बनाये रखने में किया गया प्रवृत्ति और कार्यों को मध्यस्थ नाम दिया गया है । हर क्रिया स्थिति व गति स्वरूप को प्रकट करता ही है । हर क्रिया के मूल में प्रवृत्तियाँ होना स्वभाविक है । हर प्रवर्तन, हर इकाई में परस्पर पहचानने के आधार पर गतिशील है और प्रकट है । इसको हर अवस्था में, हर पद में, हर यथास्थिति में पहचाना जा सकता है । हर इकाई में पहचानने की प्रवृत्ति है । पहचानने और निर्वाह करने के आधार पर प्रवर्तन, विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जानने के आधार पर जागृति घटित होना पाया जाता है । इसी आधार पर हर इकाई का निश्चित आवश्यकता त्व के रूप में स्पष्ट होता है । प्रवर्तन के आधार पर ही आवश्यकता स्पष्ट होना स्वभाविक है । इस प्रकार आवश्यक प्रवर्तन, आवश्यक पहचानना, इस क्रम में परस्पर पहचान होता है । त्व सहित व्यवस्था क्रम में ही पहचान है । एक दूसरे के इस प्रकार पहचान के क्रम में रहस्य से मुक्त होना पाया जाता है । इन इकाईयों के संबंध में अज्ञात नाम की चीज नहीं रह जाती है । अध्ययन काल में इस मुद्दे पर शंका कर सकते हैं कि प्रत्येक एक-एक को कहाँ तक परीक्षण किया जाय । जैसे समुद्री जल को कब तक एक-एक बूंद को परीक्षण करते रहें ? कब तक एक-एक परमाणु को परीक्षण करते रहें ? इसी प्रकार कब तक प्राणावस्था, जीवावस्था, ज्ञानावस्था की एक-एक इकाई का परीक्षण करते रहें ? क्या इस ढंग से कोई पार भी पायेगा ।

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