सुलभ है । इसके अनन्तर ऐसे ग्रह गोलों की स्थिति गति की स्वीकृति होती है । इसी प्रकार आकाश गंगा भी अनेक सौर व्यूहों का क्रियाकलाप होने के आधार पर स्थिति गति की स्वीकृति होती है । इसी के साथ व्यापक वस्तु की स्वीकृति रहती है । अतएव स्वीकृति की विशालता में से अपनी आवश्यकताओं को, प्रमाणों के रुप से अध्ययन करना मानव की एक आवश्यकता है । स्वीकृति के आधार पर अध्ययन होने की व्यवस्था मानव की आवश्यकता अनुसार निर्भर है । जानने मानने की विशालता, व्यापक और अनंत के संबंध में स्वीकार चुके हैं । व्यापक और अनंत के बारे में जानने मानने के आधार पर किसी एक देशीय अध्ययन से, एक इकाई के अध्ययन से ऐसी सभी इकाईयों के रुप, गुण, स्वभाव, धर्म के प्रति आश्वस्त होना स्पष्ट हो चुका है । यह भी स्पष्ट हो चुका है कि समुद्र के एक बूंद पानी के परीक्षण से पूरे समुद्र का पानी कैसा है, इसको हम स्वीकार लेते हैं । लेकिन जितना है, इसको मापने कौन तैयार होता है, अपनी आवश्यकता के अनुसार नापते है । मानव की आवश्यकता भी सीमित है । नापने की क्रियाकलाप के परीक्षण से पता चलता है कि यह जोड़ना घटाना ही है, नापने में 1,2,3 ही लगता है । तौलने में भी । इसी प्रकार घटाना भी बनता है, एक तरफ जोड़ते हैं, एक तरफ घटता भी है । जोड़ने, घटाने दोनों को मिलाने से यथास्थिति ही हाथ लगती है । जैसा है, जितना है, यही यथास्थिति है । ऐसी यथास्थिति न ज्यादा है, न कम है, न घटता है, न बढ़ता है । इस स्थिति से अस्तित्व न घटता, न बढ़ता है । इस विधि से हमारी परीक्षण करने की सीमायें, अपनी आवश्यकता पर निर्भर रहना स्पष्ट हो जाती है । जोड़, घटाने के क्रम में ऋण अनन्त, धन अनन्त रुपी अर्थ मानव स्वीकार चुका है । इस प्रकार से अस्तित्व में अनन्त की कल्पना अथवा स्वीकृति, कुछ हद तक संख्याकरण न कर पाने के रुप में मानव परंपरा में स्वीकृत हो चुकी है । अभी तक व्यापक वस्तु का बोध अप्रचलित है । व्यापक वस्तु का बोध होने के उपरान्त अनन्त वस्तुएं कैसे हैं, इसका उत्तर मिल गया । अतएव समझदारी रुपी अध्ययन, व्यापक में अनन्त अविभाज्य होने का अर्थ सर्वतोमुखी समाधान होने का आधार होना पाया गया । इसी क्रम में हर इकाई अपने स्थिति, गति के साथ वर्तमान है । वर्तमान का तात्पर्य वर्तते रहना है । वर्तते रहने का तात्पर्य क्रियाशील रहना है । क्रियाशील रहने का तात्पर्य आचरण स्पष्ट रहना है । आचरण स्पष्ट रहने का तात्पर्य स्थिति में त्व सहित व्यवस्था, गति में समग्र व्यवस्था में भागीदारी से है । यह धरती एक सौर व्यूह सूर्य के साथ जुड़े सभी ग्रह गोलों के समूह में भागीदारी करती हुई समझ में आती है । सभी ग्रह गोल अपने-अपने स्थिति गति में अनवरत कार्यरत हैं । एक

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