कृतज्ञता जैसे सामाजिक स्थिर मूल्यों का वहन होता है । यही मानव की चिर वाँछा भी है । यही स्वस्थ सामाजिकता की आद्यान्त उपलब्धि है ।
सच्चरित्र पूर्ण व्यक्तियों की बाहुल्यता के लिये जागृत मानव का सहयोग व प्रोत्साहन, उनकी समुचित शिक्षा व संरक्षण एवं उनके अनुकूल परिस्थितियाँ ही विश्व शान्ति का प्रत्यक्ष रूप है । इसके विपरीत में अशान्ति है, जो स्पष्ट है ।
“व्यवहार-त्रय” नियम का पालन ही सच्चरित्रता है । यही मानव की पाँचों स्थितियों में प्रत्यक्ष गरिमा है । यही सहज निष्ठा है और इसी में विज्ञान और विवेक पूर्णरूपेण चरितार्थ हुआ है । फलतः स्वस्थ व्यवस्था-पद्धति एवं शिक्षा-प्रणाली प्रभावशील होती है ।
“व्यवहार-त्रय” का तात्पर्य जागृत मानव के द्वारा किया गया कायिक, वाचिक, मानसिक व्यवहार से है ।
समस्त परिणाम, परिमार्जन एवं परिवर्तन पाँच प्रकार से दृष्टव्य है :-
(1) सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में (2) विकासक्रम (3) विकास (4) जागृति क्रम (5) जागृति पूर्णता ।
पदार्थावस्था परिणाम पूर्वक यथास्थिति पूरक रूप में प्रयोजनशील है । प्राणावस्था परिणाम पूर्वक स्पन्दन, पुष्टि सहित रचनाशील यथास्थिति व पूरक के रुप में प्रयोजनशील है । जीवावस्था परिवर्तन, परिणाम सहित जीने की आशा पूर्वक यथास्थिति पूरकता सहित प्रयोजनशील है । मानव ज्ञानावस्था में गण्य है । यह परिमार्जन पूर्वक जागृति और जागृति पूर्णता सहज परम्परा है । यही यथास्थिति पूरकता रूप में प्रमाण होना पाया गया है ।
भोग एवं बहुभोगवादी जीवन में मानव स्वयं को स्वस्थ बनाने तथा अग्रिम पीढ़ी के आचरणपूर्वक जागृति के लिये शिक्षा प्रदत्त करने में समर्थ नहीं है और न हो सकता है । यह ज्वलन्त तथ्य ही विचार परिवर्तन एवं परिमार्जन का प्रधान कारण है । भोग संस्कृति का आधार नहीं है ।