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जड़ शक्तियाँ प्रधानतः गतिशील, चैतन्य शक्तियाँ संचेतनशील हैं ।

अभाव, भाव और तिरोभाव की स्वीकार-क्षमता ही संवेदना है । यह क्रम से अभाव में वेदना, भाव में मानवीय संवेदना एवं अभाव के तिरोभाव पूर्वक सम्बोधना है । यही सम्यक बोध है । यही अनुभव का पूर्व लक्षण है ।

अभाव भाव में परिवर्तित होने के लिये प्रयोग और उत्पादन है । भाव सहज पूर्णता के लिये आचरण, व्यवहार एवं व्यवस्था है । अभाव का तिरोभाव भाव ही है ।

भाव ही मौलिकता, मूल्य एवं अर्थ है ।

प्रत्येक अर्थ का पूर्ण अर्थ अनुभव ही है । इसलिये संचेतना के अभाव में मूल्य, भाव एवं मौलिकता का निर्धारण नहीं है । संचेतना-क्षमता में ही स्थितिवत्ता की दिशा, काल, मात्रा, गति, उपयोग, गन्तव्य, योग, वियोग, ह्रास, जागृति, उचित, अनुचित एवं विधि निषेध का निर्णय एवं विवेचना करने की विशेषता निहित है । यह जब तक सार्वभौमिक रूप में शिक्षाप्रद एवं अवगाहन योग्य न हो तब तक संदिग्धता वाद-विवाद सीमा और भ्रान्तियाँ हैं । फलतः वर्ग एवं समरोन्मुखता भावी है ।

निर्णायक क्षमता कारण, गुण, गणित के रूप में, विवेचना क्षमता आत्मा के अमरत्व, शरीर का नश्वरत्व एवं व्यवहार के नियमों को स्पष्ट करने की प्रबुद्धता के रूप में प्रत्यक्ष हैं ।

जड़ शक्तियों की अपेक्षा में चैतन्य शक्तियाँ अधिकाधिक सक्षम हैं । इसका प्रत्यक्ष साक्ष्य है कि चैतन्य शक्तियों के अभाव में मानव शरीर के द्वारा सम्पादित होने वाला क्रियाकलाप सिद्ध नहीं होता है ।

मानव शरीर के लिये जितना ईंधन प्रायोजित करता है, उससे अधिक मात्रा में शक्तियों का बहिर्गमन करता है ।

चैतन्य शक्तियों की क्षमता जो पाँच रूप में गण्य हैं उसका मूल्यांकन एवं अनुभव उन्हीं की परस्परता में सम्पन्न होता है । आशा से सम्पन्न मन, विचार से सम्पन्न वृत्ति का अनुभव करता है । विचार से सम्पन्न वृत्ति, आशा से सम्पन्न मन का दर्शन करती है । विचार से सम्पन्न

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