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भौतिक द्रव्यों का नियंत्रण, उपार्जन, उपयोग एवं सद्उपयोग, सामाजिक मूल्यों का वहन-निर्वहन, आचरण एवं निरन्तरता, सत्यता-सत्य का बोध एवं अनुभव ही प्रतिष्ठायें है । इनके बिना मानव तृप्त एवं निर्भ्रांत नहीं है ।

उत्पादन और सेवा में अर्थ का उपार्जन, अर्थ के सदुपयोग में समृद्धि, संयत उपयोग एवं सद्उपयोग में संतुलन, सार्वभौमिक धर्म में समाधान, सत्य-सत्यता में अनुभव तथा आनन्द प्रसिद्ध है ।

अनुभूति आनन्द ही नित्य प्रतिष्ठा; धर्म एवं न्याय सम्मत आचरण, व्यवहार, व्यवस्था, विधि एवं शिक्षा ही समाधान एवं अमर प्रतिष्ठा; विषय-प्रवृत्ति ही अल्प प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित पाया जाता है ।

क्रिया, कर्म, पदार्थ, प्रक्रिया, फल और शक्तियाँ ये परस्पर पूरक हैं । क्रिया ही पदार्थ, पदार्थ ही प्रक्रिया, प्रक्रिया ही फल, फल ही शक्तियाँ, शक्तियाँ ही क्रिया एवं कर्म हैं । ये सभी पदार्थ में दृष्टव्य हैं ।

श्रम, गति एवं परिणामशीलता क्रिया की, उसका परावर्तन कर्म की, अर्थवत्ता पद की, विकासशीलता प्रक्रिया की, उपयोगिता फल की, तरंग, दबाव एवं प्रभाव शक्तिवत्ता की स्थितिवत्ता को स्पष्ट करता है । ये सब पदार्थ की सीमा में पाये जाने वाले परावर्तन या परिवर्तनशील प्रकटन है ।

सापेक्ष रूप से जड़ शक्तियाँ एवं अपेक्षा रूप में चैतन्य शक्तियाँ स्थितिशील हैं और निरपेक्ष रूप में अध्यात्म-सत्ता स्थिति पूर्ण है ।

जड़ शक्तियाँ ताप, प्रकाश, विद्युत, आकर्षण एवं ध्वनि के रूप में; चैतन्य शक्तियाँ, आशा, विचार, इच्छा, संकल्प एवं अनुभूति के रूप में प्रसिद्ध हैं । जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति की आधारपूर्ण सत्ता ही अध्यात्म है जो निरपेक्ष सत्ता है ।

मध्यस्थ क्रिया सहज सत्ता में बोध एवं अनुभूति होती है ।

आत्मा ही मध्यस्थ क्रिया और सत्ता ही मध्यस्थ है ।

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