संस्कृति के अभाव में सभ्यता, विधि एवं व्यवस्था का असंदिग्ध होना संभव नहीं है । इसलिये यही क्षोभ, संताप, आवेश, रोष, आक्रोश, द्वन्द्व, प्रतिद्वन्द्व, आतंक, भय, उद्वेग के रूप में स्पष्ट है । यह मानव का इष्ट नहीं है । इसलिये वह इष्ट की ओर प्रगति के लिये बाध्य है । यही मानव में विचार परिवर्तन एवं परिमार्जन की संभावना है । साथ ही संस्कारों में गुणात्मक उदय के लिये अवसर है ।
संस्कारों में गुणात्मक उदय का प्रत्यक्ष रूप ही है “नियम-त्रय” का पालन । इसी विधि से संयत प्रवृत्ति पूर्वक सामाजिक मूल्यों की निर्वाह क्षमता स्वभाव सिद्ध हो जाता है । संयत प्रवृत्ति का तात्पर्य सार्वभौम व्यवस्था सहज प्रमाण है । इस विधि से जीकर देखा गया है ।
यही सार्वभौमिक कामना भी है ।
परिमार्जित विचार ही विवेक पूर्ण विज्ञान है । यही निपुणता, कुशलता एवं पाण्डित्य के रूप में सिद्ध हुआ है ।
प्रत्येक सिद्धि प्रयोग, व्यवहार एवं अनुभव पूर्वक हुई है, जो प्रत्यक्ष है ।
भोग परिणाम में पशु मानव एवं राक्षस मानव दृष्टव्य है ।
विचार परिणाम में जागृत मानव एवं देव मानव प्रत्यक्ष है ।
दिव्य मानव में कोई परिणाम, परिमार्जन एवं परिवर्तन की संभावना नहीं है क्योंकि दिव्य मानव गन्तव्य स्थित है । उसकी निरन्तरता ही भावी है ।
विज्ञान एवं विवेकपूर्ण क्षमता ही पदार्थ का रूप, रूप में निहित गुण, गुण में निहित प्रभाव, प्रभाव में निहित स्वभाव, स्वभाव में निहित क्षमता, क्षमता में निहित गति, गति में निहित विधि, विधि में निहित व्यवस्था, व्यवस्था में निहित प्रभुता, प्रभुता में निहित विभुता, विभुता में निहित विभव, विभव में निहित विश्व, सत्ता में समाहित विश्व का अनुमान होता है। यही परिमार्जनशीलता की उपलब्धि है । प्रमाण के पूर्व अनुमान ज्ञातव्य है ।
विज्ञान का उर्ध्व एवं अधोमुखी प्रयोग हुआ है जबकि विवेक केवल उर्ध्वमुखी प्रयोग की ही प्रतिष्ठा है । विज्ञान के उर्ध्वमुखी प्रयोग का तात्पर्य - उर्ध्वमुखी प्रयोग के रूप में दूरसंचार