उद्भव, विभव, प्रलय में से विभव ही सर्वस्वीकृत घटना है । जागृति पूर्णता में ही विभववत्ता की प्रतिष्ठा पाई जाती है । उसके पूर्व योग, वियोग और संयोग, सापेक्षता में व्यवहार, कर्म, विहार रत पाये जाते है । ये सब स्थितियाँ जागृति सहज प्रमाण क्रमान्तर का द्योतक है ।
कर्म फलवती है । भ्रमित मानव फल भोगते समय में परतंत्र है । इसी सार्वभौमिक नियमवश ही मानव कर्म और उसकी फलवत्ता के प्रति निर्भ्रम होने के लिए बाध्य है ।
मानव द्वारा भ्रमित अवस्था में किया गया कर्म एवं उसका फल के प्रति संदिग्धता, सशंकता तथा अज्ञानता का होना दृष्टव्य है जबकि यह मानव में, से, के लिए वान्छित नहीं हैं ।
विभव में प्रयुक्त गुण ही मध्यस्थ, प्रलय में प्रयुक्त विषम, उद्भव में प्रयुक्त सम है । यही क्रम से परमार्थ, स्वार्थ, परार्थ कर्म है । व्यवहार के रूप मे निर्भ्रांत, भ्रांत एवं भ्रान्ताभ्रान्त अवस्था में प्रत्यक्ष है ।
सम, विषम, मध्यस्थ शक्तियाँ क्रम से रजोगुण, तमोगुण एवं सत्वगुण हैं ।
सत्वगुण सम्पन्न व्यक्ति का आचरण व्यवहार के साथ दया, आदर, प्रेम जैसे मूल्यों सहित विवेक व विज्ञान क्षमतापूर्ण होता है ।
रजोगुण सम्पन्न व्यक्ति में धैर्य, साहस, सुशीलता जैसे मूल्यों सहित विज्ञान का सद्उपयोग होता है ।
तमोगुण सम्पन्न व्यक्ति में ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान एवं अहंकार जैसे अवांछनीय विकृतियों सहित विज्ञान क्षमता का अपव्यय होता है ।
सत्य-सम्बद्ध-विधि-व्यवस्था, विचार, आचरण, व्यवहार, शिक्षा, दिशा, कर्म एवं पद्धति के अनुसार वर्तना ही मानव में व्यष्टि व समष्टि का धर्म पालन है ।
मानव का स्व-धर्म पालन ही अखण्डता सार्वभौमता है और सीमा विहीनता है, जो स्वयं में सहअस्तित्व, सामाजिकता, समृद्धि, संतुलन, नियंत्रण, संयमता, अभय, निर्विषमता, सरलता एवं उदारता है । इसी में दया, स्नेह, उदारता, गौरव, आदर, वात्सल्य, श्रद्धा, प्रेम,