सुलभ होना स्पष्ट है और अधोमुखी प्रयोग से सामरिक तंत्र (यान्त्रिक युद्ध तंत्र) होना स्पष्ट हुआ। धरती में प्रदूषण के मूल में खनिज कोयला, खनिज तेल, विकिरणीय द्रव्यों का ईंधनावशेष के रूप दृष्टव्य है । विवेक सम्मत विज्ञान शक्ति के सही प्रयोग में भय एवं आतंक जैसी अनिष्ट घटना नहीं होती है । विवेक सहज प्रयोजन की स्थिति में अनिष्ट सिद्ध नहीं होता है।
विवेकपूर्ण क्षमता का उदय होना या न होना पाया जाता है न कि विवेकपूर्ण क्षमता का अपव्यय । जबकि विज्ञानपूर्ण क्षमता का अपव्यय एवं सद्व्यय प्रत्यक्ष है ।इस प्रकार सिद्ध होता है कि विज्ञान का नियंत्रण विवेक से ही है, न कि विज्ञान का नियंत्रण विज्ञान से ।
विकास की ओर प्रगति ही उर्ध्वमुख, ह्रास की ओर विवशता अधोमुख है, जो स्पष्ट है।
विकास की प्रत्येक स्थिति उससे अधिक विकास की श्रृंखला-सम्बद्ध है । इसलिये प्रत्येक स्थिति अग्रिम विकास के लिये सम्बद्ध है ।
विकास की ओर प्रगति में उत्साह, प्रसन्नता तथा हर्ष का अनुभव है । इसके विपरीत में ह्रास की ओर गति से खिन्नता, निरूत्साह, विवशता एवं क्लेश है ।
उर्ध्वमुखी विज्ञान शुद्ध रजोगुण तथा सत्व-गुणपूर्वक विभव कार्य में प्रसक्त है, जो विज्ञान की वास्तविक चरितार्थता है । साथ ही इसके विपरीत में विज्ञान में मलिन रजोगुण तथा तमोगुणपूर्वक संहार एवं अतिभोग प्रसक्त है जो विज्ञान के पूर्ण दुरूपयोग का द्योतक है ।
मानवीयतापूर्ण मानव और उससे अधिक जागृतिशीलता ही उर्ध्वमुखी जीवन में गण्य है जिसमें दया, सरलता, त्याग, तप, परोपकार, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह तथा गौरव जैसी मौलिक मूल्यवत्ता आचरित होती है । यही स्व-पर, मांगलिक है ।
दुष्चरित्र में लिप्त जीवन का भय-त्रस्त होना विवशता है, जो स्व-पर पीड़ा का प्रधान कारण है । यही मानव में निहित अमानवीयता का भय है । यही असामाजिकता एवं असहअस्तित्व का मूल रूप है ।