पाण्डित्य है । पूर्णता ही पांडित्य है । पांडित्य से अधिक ज्ञान एवं निपुणता, कुशलता से अधिक व्यवहार एवं उत्पादन नहीं है । परिमार्जनशीलता उत्पादन व व्यवहार में पाई जाती है । पांडित्य ही प्रबुद्धता, प्रबुद्धता ही शिक्षा एवं व्यवस्था है । प्रबुद्धता से परिपूर्ण होते तक उपासना अत्यन्त सहायक है ।
देवी-देवता तीन प्रकार से गण्य हैं :- भू, अन्तरिक्ष और दिव्य स्थानीय । यह उनकी विचरण क्षमता पर आधारित है । चैतन्य इकाई, सूक्ष्म व कारण क्रिया के सम्मिलित रूप है । यही जीवन-पुंज है । यही देवी-देवता हैं । स्थूल शरीर प्राण वायु से, सूक्ष्म क्रिया चित्त से एवं कारण क्रिया आत्मा से नियंत्रित पाई जाती है । सूक्ष्म और कारण का वियोग नहीं है, यही अमरत्व का साक्षी है । सूक्ष्म और कारण का संकेत केवल स्थूल शरीर को संचालित करने में स्पष्ट होता है, साथ ही यह अनिवार्य भी है । स्थूल-शरीर रहित अवस्था में बुद्धि के संकेतानुसार ही सूक्ष्म क्रियायें सम्पन्न होती है ।
तीनों प्रकार के देवता द्यौ स्थलीय (असीम अवकाश में विचरने वाले) अंतरिक्ष स्थलीय (एक ब्रम्हाण्ड के अवकाश में विचरने वाले) और भू-स्थलीय (एक भूमि के वातावरण में ही विचरने वाले) होते हैं । ये ही क्रम से दिव्य आत्मा, देवात्मा एवं भूतात्मा हैं ।
आचरणपूर्णता, पूर्ण जागृति सम्पन्नता के कारण दिव्यात्मा, क्रियापूर्णता से सम्पन्न सतर्कता सहित होने के कारण देव आत्मा एवं विषयों में तीव्र आसक्ति एवं सशंकता सहित भयवश भूतात्मा हैं । राक्षस मानव एवं पशु मानव ही देहानन्तर भूतात्मा, मानवीयतापूर्ण मानव व देवमानव ही शरीरानन्तर देवात्मा तथा दिव्य मानव ही शरीर त्यागने के अनन्तर दिव्यात्मा की कोटि में गण्य है ।
भूतात्मायें अधिभौतिक तत्वों में, देवात्मायें अधिदैविक तथ्यों में तथा दिव्यात्मायें अध्यात्म में तादात्म होती है । इसलिये तीन कोटियाँ स्थापित पाई जाती हैं ।
अधिभौतिकी सीमा में उत्पादन प्रधान व्यवहार, अधिदैविक सीमा में व्यवहार प्रधान उत्पादन, अध्यात्मपूर्ण जीवन में अनुभवमूलक विचार, व्यवहार एवं उत्पादन क्रम प्रत्यक्ष है । इसलिये व्यवहार एवं व्यवसाय अध्यात्मपूर्ण जीवन में संयत एवं नियंत्रित, अधिदैविक जीवन