में व्यवस्थित एवं अनुशासित तथा भौतिक जीवन में अनानुशासित एवं अव्यवस्थित पाया जाता है । इसलिये अध्यात्मपूर्ण जीवन में ही मानव के चारों आयामों की एकसूत्रता पाई जाती है ।
“विषय-चतुष्टय” के लिये अधिभौतिक तत्वों में, “ऐषणा-त्रय” के लिये अधिदैविक (सामाजिक एवं व्यवहारिक) मूल्यों में, दिव्य मानव अध्यात्म में तादात्म्य पाया जाता है जिसके लिये ही क्रम से आसक्ति, उपासना एवं निष्ठा प्रयुक्त होती है ।
परमात्मा (सत्ता) में सम्पूर्ण जड़-चैतन्यात्मक प्रकृति सम्पृक्त है इसलिये “यह” में अनुभव पर्यन्त जागृति के लिये ये बाध्य हैं ।
भ्रमित मानव सापेक्षता से पीड़ित, आवेशित या सम्बद्ध है, जो प्रत्यक्ष है । यह सापेक्षता तब तक दृष्टव्य है जब तक इकाई भ्रम-मुक्त न हो जाय, क्योंकि भ्रम-मुक्त अवस्था ही उसका परमोत्कर्ष है ।
नियंत्रण ही नियम, प्रेरणा, संयोजन, सापेक्षता, श्रम, गति, परिणाम, क्रिया, आचरण, योग, वियोग, संयोग, पद, अवस्था एवं नियंत्रण है, जो दृष्टव्य है ।
दिव्यात्माओं की उपासना ही विद्या,देवात्माओं की उपासना ही उपविद्या, तथा भूतात्माओं की उपासना ही क्षुद्र विद्या है । दिव्यात्माओं की उपासना जागृतिपूर्वक भ्रम-मुक्ति सहित बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि के लिये, देवात्माओं की उपासना बौद्धिक समाधान एवं भौतिक समृद्धि के लिये एवं भूतात्माओं की उपासना केवल भौतिकता के लिये किया जाना प्रसिद्ध है ।
सभी जीवन अपने अपने स्वभाव से सम्पन्न हैं । यही उनकी प्रतिष्ठा है । इससे अधिक उनमें से स्वभाव प्रकटन संभव नहीं है ।
केवल भौतिकता ही मानव के लिये पर्याप्त सिद्ध नहीं हुई क्योंकि मानव में पाये जाने वाले चार आयाम केवल भौतिक द्रव्यों से तृप्त नहीं होते हैं । इसलिये मानव जब तक उत्पादन, व्यवहार, विचार एवं अनुभूति की एकसूत्रता से परिपूर्ण न हो जाय तब तक वह प्रयोग, प्रयास, अभ्यास के लिये बाध्य है ।