1.0×

मानवीयता तथा अतिमानवीयता में शाकाहार की मौलिकता स्पष्ट हो जाती है । मानव में शिष्टता की एकात्मिकता (वैविध्य विहीनता) मानवीयता पूर्वक ही प्रतिष्ठित पायी जाती है । इसलिये उपासना में सार्वभौमिक मूल्यों का अवगाहन करना ही प्रधान उपादेयता है ।

जिन उपासना पद्धतियों के द्वारा उत्पन्न शिष्टतायें मानव में वर्ग-भावना को स्थापित करती हैं वे सभी अभ्युदय के लिये पूर्णतः सहायक नहीं है क्योंकि अन्ततोगत्वा वर्ग-भावना समरोन्मुखी है ही । समरविहीनता के लिये सार्वभौमिकता अनिवार्य तथ्य है ।

समस्त उपासनाओं के मूल में लक्ष्य साम्य है वह अखण्ड समाज, सार्वभौम व्यवस्था है । वह केवल सर्व मंगल ही है । क्योंकि सर्व मंगल की कामना के बिना स्वयं का मांगल्य सिद्ध नहीं है ।

अन्य काम्य कामनायें केवल मंगलमयता की भास प्रदायी हैं न कि अनुभवदायी । इसलिये सर्वमंगल कामनानुरूपी कार्यक्रम तथा उसकी अनुसरण योग्य क्षमता पर्यन्त मानव प्रयास करने के लिये बाध्य है ।

सार्वभौमक मानवीयतापूर्ण पद्धति से “नियम-त्रय” (बौद्धिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक) के आचरणपूर्वक ही आर्थिक एवं साम्प्रदायिक वर्ग-भावनाओं से मुक्त होने की संभावना एवं मुक्ति है । इसी में समस्त वर्ग-भावना विलीन हो जाती है । इसलिये उपासना अभीष्ट समझदारी जागृति पूर्वक सार्थक होता है जो जागरण ही है ।

मानव में शक्तियाँ क्रिया; इच्छा एवं ज्ञान शक्ति ही है, जो उनकी अर्हताएँ हैं । अर्हताएँ प्रत्येक इकाई की जागृतिशीलता, जागृति पर आधारित पाई जाती है ।

जागृतिशीलता के लिये ही उपासनायें हैं, न कि ह्रास के लिये ।

जागृति-क्रम प्रक्रिया प्रगति में पीड़ा नहीं है । यही जीवन का संगीत (एक सूत्रता) है । इसके विपरीत क्रिया-प्रक्रिया एवं ह्रास में ही सम्पूर्ण प्रकार की पीड़ायें हैं, जो दुख हैं ।

बौद्धिक, व्यवहारिक एवं भौतिक पीड़ायें है । ये पीड़ा क्रम से समस्या, अपराध, अक्षमता एवं अपव्यय के रूप में दृष्टव्य हैं । यही अजागृति का प्रत्यक्ष रूप है ।

Page 35 of 166
31 32 33 34 35 36 37 38 39