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गठनपूर्ण परमाणु भ्रमवश शरीर को जीवन समझने तक, परमाणु में विकास को समझने में समर्थ नहीं रहता है । भौतिक, रासायनिक विकासक्रम में मानव शरीर तथा परमाणु में विकास पूर्वक जीवन और जीवन जागृति को प्रमाणित करने के क्रम में ही मानव परंपरा में जागृति को प्रमाणित करना होता है । जागृति के प्रमाण का मतलब ही है न्यायपूर्वक, समाधानपूर्वक, यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता पूर्वक प्रमाणित होना । प्रमाणित होने का मतलब परम्परा में होना ही है । उक्त पाँचों विधाएं प्रमाणित होने के क्रम में पीढ़ी से पीढ़ी प्रमाणित होना स्वाभाविक है, यही जागृत परम्परा है ।

मानव में यह वैभव देखने को मिलता है कि वह उपयोगी, सदुपयोगी, प्रयोजनशील प्रमाणित किया हुआ शोध अनुसंधान को शिक्षा पूर्वक, अध्ययन पूर्वक, अभ्यास पूर्वक लोकव्यापीकरण करता हुआ पाया जाता है ।

उक्त विधा में अभी तक मनाकार को साकार करने का जितना भी प्रयोग हुआ, वह सब लोकव्यापीकरण हुआ । और मनःस्वस्थता के लिए जितना भी प्रयोग हुआ, लोकव्यापीकरण नहीं हुआ । जबकि मानव की परिभाषा ही मनाकार को साकार करने वाला, मनःस्वस्थता का प्रमाण प्रस्तुत करने वाला है (आशावादी तो है ही) ।

परमाणु में विकास के चलते गठनपूर्णता एक संक्रमण घटना रही । संक्रमणीयता का तात्पर्य पुनः पूर्व स्थिति में न आने वाला । परिणाम से मुक्ति का तात्पर्य परमाणु में से कुछ अंश घटने, बढ़ने की घटना से मुक्ति ।

सहअस्तित्ववादी विधि से शरीर और जीवन के संयुक्त रूप में मानव परम्परा वैभवित है । जीवन जागृति ही मनःस्वस्थता का प्रमाण है । जीवन में ही सम्पादित होने वाली, वैभवित होने वाली, अनुभव मूलक विधि से, अनुभवों का बोध बुद्धि में, चिंतन चित्त में, न्याय धर्म सत्य पूर्वक समुचित तुलन क्रिया वृत्ति में (विचारण क्रिया) और मूल्यों का आस्वादन क्रिया मन में होना पाया जाता है । मूल्यों का आस्वादन क्रिया पूर्वक कार्य-व्यवहार तभी सम्भव है जब संबंधों का पहचान स्वीकार्य रहता है । संबंधों को पहचानने के उपरांत ही मूल्यों का निर्वाह कर पाता है ।

संबंधों के साथ मूल्य, मूल्यों के साथ वस्तुओं का अर्पण-समर्पण, वस्तुओं के अर्पण-समर्पण के साथ उपयोगिता, सदुपयोगिता, प्रयोजनशीलता प्रमाणित होता हुआ अर्थात् वैभवित होता

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