करता है । इसी क्रम में समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक संतोष, आनन्द अपने आप में सम्पूर्ण सार्थक होना पाया जाता है । इस ढंग से मानव लक्ष्य सार्थक होने की स्थिति में जीवन लक्ष्य (सुख, शांति, संतोष, आनन्द) सार्थक होता ही है । जीवन लक्ष्य और मानव लक्ष्य सार्थक होना ही अध्ययन और अध्यापन की सार्वभौमता है । ऐसे लक्ष्य के साथ, मानव परम्परा अपने आप में स्वयं को पहचानने और सम्पूर्ण मानव को पहचानने का सूत्र और व्याख्या बन जाता है । प्रमाण के रूप में व्याख्या, समझ के रूप में सूत्र होना पाया जाता है । यह नियति सहज विधि से समीचीन रहना पाया जाता है । नियति विधि का तात्पर्य विकासक्रम, विकास, जागृति क्रम, जागृति सहज प्रमाण परंपरा है । दूसरे विधि से भौतिक, रासायनिक रचना शरीर और जीवन क्रियाकलाप का संयुक्त अभिव्यक्ति, सम्प्रेषणा, प्रकाशन के रूप में है ।
मानव लक्ष्य - समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व सहज प्रमाणित करने और उस आधार पर जीवन लक्ष्य (मनःस्वस्थता) - प्रमाण ही सुख, शान्ति, संतोष, आनन्द को सार्थक बनाने के अर्थ में मानव शिक्षा संस्कार की आवश्यकता सदा-सदा से बनी हुई है । इसकी सफलता ही मानव कुल का सौभाग्य है ।
मानव कुल और रासायनिक-भौतिक क्रियाकलाप का सार्थक प्रमाण
शिक्षा की सम्पूर्ण वस्तु सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में ही है । इसमें से, इनके अविभाज्य रूप में मानव परम्परा का सम्पूर्ण क्रियाकलाप, व्यवहार, सोच विचार, समझ है । समझ के अर्थ में ही हर मानव का अध्ययन करना होता है । समझ अपने में जानना, मानना, पहचानना, निर्वाह करने के रूप में प्रमाणित होती है । इसी अर्थ में सम्पूर्ण अध्ययन सार्थक होना पाया जाता है ।
अस्तित्व में सम्पूर्ण इकाईयाँ, रासायनिक, भौतिक एवं जीवन क्रिया के रूप में परिलक्षित है ही । गठनशील परमाणु से लेकर अणु, अणुरचित पिंड, प्राणकोषा, वनस्पति संसार, जीव संसार सभी स्वयं में व्यवस्था में रहते हुए, अपने-अपने निश्चित आचरण को व्यक्त करते हुए समझ में आते हैं । ऐसे प्रमाण में से ये धरती सबसे बड़ा प्रमाण है । धरती एक व्यवस्था के रूप में काम करती है । व्यवस्था के रूप में काम करने का प्रमाण ही है, इस धरती पर भौतिक-रासायनिक और जीवन क्रियाकलाप पदार्थ, प्राण, जीव और ज्ञान अवस्था के रूप में प्रकाशित है । इससे