रहे हैं, न कि अस्थिरता, अनिश्चयता को । स्थिरता के सहज आधार पर ही निश्चयता का होना स्वभाविक है । विकास एवं जागृति सहज निश्चयता, सर्वमानव में जीवन क्रिया के रूप में प्रमाणित है । जीवन की पाँच क्रियायें स्थिति के रूप में और पाँच क्रियायें गति के रूप में सर्व मानव में अध्ययन होना स्वभाविक है । अध्ययन करने वाला भी मानव ही है । अध्ययन के उपरान्त प्रमाणित करने वाला भी मानव, प्रमाणित रूप में जीने वाला भी मानव ही है । इस प्रकार मानव ही जागृति का प्रमाण है । जीवन क्रिया सर्वमानव में गति के रूप में चयन, विश्लेषण, इच्छा, ऋतम्भरा और प्रमाणों के रूप में होना पाया जाता है, यही परावर्तन है । इसी के साथ पाँच स्थिति क्रियायें आस्वादन, तुलन, चिंतन, बोध और अनुभव क्रिया के रूप में पाया जाता है । तभी मानव परम्परा अनुभव प्रमाण प्रमाणित होना पाया जाता है । जीवन की पाँच स्थिति क्रियाओं को बल के रूप में तथा पाँच गति क्रियाओं को शक्ति के रूप में व्यक्त करते हैं ।
जागृत जीवन द्वारा संबंध उनके निर्वाह एवं प्रयोजनों के अर्थ में किया गया चयन है - आशा, सुख से जीने की आशा, यह पहली जीवन शक्ति है । दूसरा, आशा के अनुरूप, अर्थात् जागृत जीवन सहज आशाओं के आधार पर विश्लेषण सम्पन्न होना ही विचार है । तीसरा, जागृत जीवन के विश्लेषण के अनुरूप चित्रण होते रहना ही इच्छा है । चौथा, जागृत जीवन के न्याय, धर्म, सत्यता को प्रयोजित, और व्यवहारित करना है ऋतम्भरा । पाँचवां, अनुभव सहज प्रमाणों का प्रमाणिकता संज्ञा है । इस प्रकार पाँच शक्तियों का होना मानव को समझ में आता है । इसी प्रकार पाँच बलों की भी प्रमाणिकता है -
- जागृत जीवन में अनुभव एवं उसकी निरंतरता क्रिया है आत्मा ।
- अनुभव के यथावत् बोध करने वाली अर्थात् पूर्णतया स्वीकार करने वाली क्रिया है बुद्धि ।
- अनुभव अनुसार न्याय, धर्म, सत्य को स्वीकार करने की निरंतरता को बनाए रखने वाली क्रिया चिंतन है चित्त ।
- साक्षात्कार किया गया न्याय धर्म सत्य को अनुभव मूलक विधि से तुलन करने वाली क्रिया है वृत्ति ।
- तुलन के अनुसार संपूर्ण मूल्य, चरित्र, नैतिकता की अपेक्षा अथवा आस्वादन करने वाली क्रिया है मन ।
इस प्रकार पांच बल एवं पाँच शक्तियों का स्पष्टीकरण जीवन में होने वाली क्रिया के रूप में है ।