व्यवहार ज्ञान और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने का ज्ञान ही सम्पूर्ण ज्ञान है । इनमें से सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व को चार अवस्थाओं में और चार पदों में अध्ययन करना बन पाता है । इसका मूल स्वरूप व्यापक वस्तु में सम्पूर्ण एक-एक वस्तुओं का डूबा, भीगा, घिरा रहना ही है । यही सहअस्तित्व रूपी नित्य स्वरूप है । यह अपने में घटना-बढ़ना होता ही नहीं, फैलना सिकुड़ना होता ही नहीं, हर हाल में होना-रहना विकास एवं जागृति प्रकटन के अनुसार ही बना रहता है । इकाईयों की परस्परता में, निश्चित अच्छी दूरियों में, हर इकाईयों में स्वभाव गति प्रमाणित होने की व्यवस्था है ही । क्योंकि, हर परमाणु अंश दूसरे परमाणु अंशों को पहचानने की स्थिति में ही परमाणु गठन के फलन में निश्चित आचरण चरितार्थ होता हुआ समझ में आया है । निश्चित आचरण का ही स्वभाव गति नाम है । इसलिये स्वभाव गति प्रतिष्ठा में ही हर इकाई अथवा संपूर्ण इकाईयाँ त्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करता हुआ देखने, समझने में आता है । स्वयं के अध्ययन से भी यही स्थिति उद्घाटित होती है। इस अर्थ में विकास और जागृति निश्चित है ।
हम मानव जागृति पूर्वक स्वभाव गति में ही अर्थात् स्वभाव गति सम्पन्नता के उपरान्त ही, मानवत्व सहित व्यवस्था और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करने की प्रवृत्ति होती है । ऐसी स्वभाव गति, जागृति के उपरान्त ही होना पायी जाती है । जागृति तभी प्रमाणित होती है, जब मानव समझदारी, ईमानदारी, जिम्मेदारी सम्पन्न हो जाता है, फलतः भागीदारी पूर्वक अपने महिमा, यथा स्थिति को प्रमाणित करता है । दूसरे क्रम में यह भी समझ में आया कि मानव ही समझदार होने योग्य है । मानव स्थिरता, निश्चयता को समझने के उपरान्त ही स्वयं निश्चयता और स्थिरता के लिये ईमानदार हो पाता है, जिम्मेदार हो पाता है । फलस्वरूप भागीदारी पूर्वक प्रमाणित हो पाता है । इसलिये मानव को समझदार होना आवश्यक है इसकी अपेक्षा अर्थात् समझदारी की अपेक्षा सर्वमानव में होना पाया जाता है ।
6. अनुभव और जागृति की स्थिरता और निश्चयता
निश्चयता, स्थिरता सर्वमानव में चिराकाँक्षा के रूप में बनी ही है । सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व, ज्ञान और स्वीकृति का आधार है । यह सर्वमानव में सर्वेक्षण पूर्वक विदित होने वाला तथ्य है । स्वयं को जाँचने से भी यही स्पष्ट होता है । हम सब स्थिरता व निश्चयता को ही स्वीकार करते