रूप में समायी हुई है और इस पर फैली हुई रसायन संसार ठोस, तरल, विरल के रूप में होना देखने को मिल रहा है । ठोस रूप में बहुत सी वस्तुयें अपने को देखने को मिलती ही हैं। जैसे शरीर में बनी हुई हड्डियाँ ठोस रूप में रहती ही हैं । ऐसी वस्तुयें ठोस होने के पूर्व तरल रूप में रहती ही है । रसायन द्रव उष्मा संयोग से विघटन विधि से संयोजित होकर विरल रूप में विद्यमान रहती है । इसका मतलब उष्मा विधि से वस्तु फैलना शुरु करता है । किसी ठोस वस्तु में उष्मा को प्रवेशित कराया जाए तब वह वस्तु अपने निश्चित आयतन स्वरूप से अधिक जगह में फैलने लगता है । यह तब तक फैलता है, जब तक तरल हो जाए, विरल हो जाए ।
ऊष्मा को हम इस विधि से पहचानते हैं कि वस्तु जलकर या जलाकर जो प्रभाव होता है, इसे हम ऊष्मा नाम दे रहे हैं । इसको दूसरे विधि से ऐसे पहचान पा रहे हैं, वस्तु जो ज्यादा आवेशित हो गई वह सदा उष्मित होती है । अर्थात् उसका ताप बढ़ जाता है । ताप को पहचानने वाला आदमी है । अन्य प्रकृति ताप से प्रभावित होते हैं । मानव को अलग करके ताप को मापदंड में पहचानना नहीं होता । ताप को प्रयोगों में प्रयोजित कर फल परिणामों को आंकलित कर पाना मानव से ही सम्पन्न होता है अर्थात् मानव ही सम्पादित करता है ।
पहचानना जड़-चैतन्य प्रकृति दोनों में होता है, पहचानना निर्वाह करने में जड़ प्रकृति प्रमाणित है । जबकि जानना, मानना केवल चैतन्य प्रकृति मानव में ही होता है । मानव जड़-चैतन्य के संयुक्त रूप में होते हुए जानने-मानने की क्षमता से युक्त है । मूल मुद्दे में पहचानना भी एक क्रिया है । एक पदार्थ, दूसरे के लिए ताप को परावर्तित करते हैं, अपने में से ताप को जो व्यक्त करते हैं, उसके आसपास के अणु परमाणु ताप को स्वीकारते हैं । इसे हम पहचानना कह रहे हैं । फलस्वरूप परिणतियाँ हो जाती हैं । जैसे लोहे को पिघलने के लिये जितने भी ऊष्मा को नियोजित किया जाता है, उसको लोहा स्वीकारता है, लोहे का अणु परमाणु स्वीकार करता है। फलस्वरूप पिघलता है । इस क्रिया को हम मानव ऐसी व्याख्या करते हैं - पहचान लेता है, निर्वाह करता है, तभी पिघलता है । मानव ही एक ऐसी इकाई है जो तप्त लोहे को विविध आकारों में बदल देता है, इसी को सांचे में ढालना हम मानते हैं । इसमें लोहा पुनः जमते तक, ठंडा होने तक ऊष्मा को परावर्तित करते ही रहता है । इसके साथ जुड़ी हुई सभी द्रव्य, लोहे के ताप को आबंटित कर लेता है । अन्ततोगत्वा लोहा ठंडा हो जाता है ।
ताप उद्दीप्त करने के प्रयास से, अर्थात् ताप को प्रकट करने और बढ़ाने की क्रिया में एक जलने वाला और एक जलाने वाला का संयोग रहता ही है । जैसे कोयला जलने वाला है, हवा जलाता