मानव जीवन का भी प्रमाण है । मानव परम्परा का परम वैभव है । प्रयोजन रूपी व्यवस्था ही मानव परम्परा की सर्वोच्च उपलब्धि है । इन्हीं उपलब्धियों में स्थिरता, निश्चयता स्पष्ट है ।
मानव परम्परा जागृत होने में स्थिरता, अस्तित्व सहज विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है । निश्चयता मानवीयता पूर्ण आचरण विधि से प्रमाणित होता है, सुस्पष्ट होता है । इसकी अपेक्षा मानव में पीढ़ी से पीढ़ी में रहा आया है । इस प्रकार मानव का विकास और जागृति को प्रमाणित करने में समर्थ होना ही, मानव का उत्थान, वैभव, राज्य होना पाया जाता है । राज्य का परिभाषा भी वैभव ही है । उत्थान का तात्पर्य मौलिकता रूपी ऊँचाई में पहुँचने से या पहुँचने के क्रम से है । वैभव अपने स्वरूप में परिवार व्यवस्था और विश्व परिवार व्यवस्था ही है । ऐसी व्यवस्था में भागीदारी मानव का सौभाग्य है । इस क्रम में अध्ययन, शिक्षा संस्कार के रूप में उपलब्ध होते रहना भी व्यवस्था का बुनियादी वैभव है । वैभव ही राज्य और स्वराज्य के रूप में सुस्पष्ट होता है । स्वराज्य का मतलब भी मानव के वैभव से ही है । यह वैभव समझदारी पूर्वक ही हर मानव में पहुँच पाता है । यह शिक्षा पूर्वक लोकव्यापीकरण हो पाता है । ऐसी व्यवस्था अपने आप में द्रोह, विद्रोह, शोषण और युद्ध मुक्त रहना इसके स्थान पर समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व पूर्वक रहना पाया जाता है । यही सार्वभौम व्यवस्था का तात्पर्य है ।
युद्ध और संघर्ष मुक्त जागृति और अभ्युदय सहज प्रमाण युक्त परंपरा ही व्यवस्था का सूत्र और व्याख्या है । समझदारी पूर्वक हर मानव अर्थात् नर-नारी का अपने जागृति को प्रमाणित करना स्वयंस्फूर्त प्रवृत्ति है । इन प्रवृत्तियों के आधार पर मानव का वर्तमान में विश्वास को प्रमाणित कर पाना होता है । यही कड़ी है । वर्तमान में विश्वास के आधार पर ही सहअस्तित्व प्रमाणित हो पाता है ।
जागृत मानव परंपरा में ही स्थिरता सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व विधि से प्रमाणित होता है और निश्चयता मानवीयतापूर्ण आचरण विधि से प्रमाणित होता है ।
7. उष्मा और धरती का संतुलन
मानवेत्तर प्रकृति को खनिज सम्पदा से भरपूर धरती पर फैली हुई हरियाली, जीव संसार के रूप में देखते हैं । यह धरती पहाड़, जंगल, नदी, नाला, जीव जानवर से सम्पन्न है । सम्पन्नता का अर्थ है इस धरती पर ये सब विद्यमान हैं ही । धरती अपने में खनिजों को ठोस और विरल के