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अपने-अपने प्रजाति के अणु रचना अथवा मिश्रित रचना के रूप में प्रस्तुत है । इन्हीं की विविध प्रजातियों के आधार पर यौगिक घटना, रासायनिक उर्मि और वैभव अर्थात् नृत्य घटित है । रासायनिक द्रव्य के आधार पर संपूर्ण प्राणकोषा, प्राणकोषा संरचित रचनाएं, छोटे से बड़े वनस्पति प्रजातियाँ, जीवावस्था प्रजातियाँ, मानव शरीर प्रजाति का रचना इस धरती पर ही प्रमाणित है । इससे स्पष्ट हुआ कि ऊर्जा सम्पन्नता, बल सम्पन्नता, क्रियाशीलता के साथ-साथ विकास क्रम और विकास की प्रवृत्तियाँ समाई रहती है ।

जीवन, विकसित पद में होना पहले स्पष्ट किया जा चुका है । यह गठनपूर्ण पद को प्राप्त किया रहता है । इस गठनपूर्ण परमाणु में ही आशानुरूप गतित होने की व्यवस्था बनी रहती है । यह स्वयं स्फूर्त है कि ऐसा आशानुरूप गतित रहने वाला जीवन आशावश किसी न किसी जीवावस्था अथवा ज्ञानावस्था के शरीरों को संचालित करता है । ऐसे जीवन किसी भी एक धरती से दूसरे धरती तक पहुँचने की सम्भावना समीचीन रहती है । कुल मिलाकर हर धरती पर विकासक्रम, रासायनिक-भौतिक रचनाओं और उनके परम्परा के रूप में प्रमाणित होना मानव को समझ में आता है । इससे स्पष्ट हो गया है कि हर धरती, किसी समृद्ध धरती के साथ किसी निश्चित दूरी को बनाये रखते हुए, व्यवस्था में भागीदारी के रूप में कार्य करते हुए स्वयं में विकासक्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति को प्रमाणित किये रहता है । इन सबका दृष्टा जागृत मानव ही है न कि भ्रमित मानव । इस क्रम में कई धरती किसी न किसी अवस्था में कार्यरत हैं ही । सभी अविकसित धरतियाँ विकास को प्रमाणित करने की ओर प्रवर्तनशील है । यह भी इस बात का संकेत है कि जितनी भी धरतियाँ अविकसित अवस्था में है अर्थात् जिन धरती में विकास क्रम ही प्रगट नहीं हुआ है, ऐसी सभी धरतियाँ विकास क्रम को सजाने की ओर अपने प्रवृत्ति को बनाये हुए हैं । इसी क्रम में सूर्य ग्रह जो ह्रास की परम स्थिति में है, वह भी कालान्तर में विकास क्रम में होने की कल्पना मानव परम्परा में प्रचलित है । यह सब स्थितियाँ विकास और जागृति होने के पक्ष में स्पष्ट हुई है । धरती कोई भी अवस्था में हो उसमें विकासक्रम, विकास को प्रमाणित करने का मूल बीज समाहित ही रहता है । क्योंकि, हर आवेश सामान्य गति की ओर, स्वभाव गति की ओर; स्वभाव गति विकास क्रम की ओर; विकासक्रम विकास को प्रमाणित करने की ओर; विकास जागृतिक्रम को प्रमाणित करने की ओर; जागृतिक्रम जागृति को प्रमाणित करने की ओर एवं जागृति की निरन्तरता को प्रमाणित करने की ओर कार्य करता हुआ समझ में आता है । इस विधि से इस बात पर विश्वास कर सकते हैं कि सम्पूर्ण सहअस्तित्व विकास और जागृति को यथास्थिति प्रकाशित करने के अर्थ में ही संतुलनपूर्वक क्रियाशील है ।

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