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में । इसी के साथ यह भी समझ में आता है कि धरती घूमते हुए जो भाग सूर्य के सम्मुख रहता है, वह तप्त होता है । इसी कारणवश सूर्योदय और अस्त होता है । अस्त होते समय भी न्यूनतम ताप धरती को स्पर्श किये रहता है । इन दोनों के मध्य में, बीच में, अधिकतम ताप स्पर्श किये रहता है । इसको हर व्यक्ति परीक्षण, निरीक्षण कर सकता है ।

धरती के घूर्णन गतिवश ही सूर्य के सम्मुख, विमुख होने का विन्यास स्पष्ट होता है । इसी घूर्णन गति के नर्तन के समान में होने वाली कंपनात्मक गति ही सूर्य के चारों ओर वर्तुलात्मक गति में प्रमाणित होने का स्वरूप है । इसके मूल में त्व सहित व्यवस्था प्रवृत्ति ही है । यह प्रवृत्ति परस्पर अच्छी दूरी में रहते हुए व्यवस्था को प्रमाणित करने के रूप में है । इस अर्थ में निश्चित निर्वाह हर परस्परता में वर्तमान है, अर्थात् प्रमाणित है । इस प्रकार से यह धरती, इस सौर्य व्यूह में जितने भी ग्रह-गोल भागीदारी कर रहे हैं, इन सबके साथ तालमेल रखते हुए, सूर्य के सम्मुख-विमुख होते हुए, सूर्य से निश्चित अच्छी दूरी में रहते हुए सभी ओर चक्कर काटता हुआ देखने को मिल रहा है । इस प्रकार से यह चक्राकार गति पथ पूर्णतया गोल न होकर अण्डाकार में होना, इस बात की प्रवृत्ति है । इस प्रवृत्ति का प्रधान आशय धरती में ऋतु परिवर्तन की स्वयं स्फूर्त प्रवृत्ति है । अंततः इस धरती पर विकास क्रम, विकास, जागृतिक्रम, जागृति प्रमाणित होना ही आशय है । इस आशय को कैसे हम मानव समझें ।

उक्त मुद्दे को इस प्रकार समझना बन जाता है कि इस धरती पर चारों अवस्थायें प्रकाशित है । जो थी नहीं, वह होती नहीं । इस तथ्य को विश्लेषित करने पर पता लगता है कि इन चारों अवस्थाओं की मूल प्रवृत्ति पदार्थावस्था में समाहित रहा ही । अगर ऐसा नहीं होता, तब यौगिक और हरियाली का उदय होना संभव ही नहीं था, जबकि इस धरती पर यौगिक क्रिया सम्पादित हो चुकी है, हरियालियाँ फैल चुकी हैं । इसी के साथ-साथ भुनगी-कीड़े से लेकर अनेक पशु-पक्षी, जीव-जानवरों का प्रगटन व परम्परा स्थापित हो चुकी है । इतना ही नहीं, मानव शरीर परम्परा भी स्थापित हो चुकी है । इन में से किसी को नकारने का कोई तर्क या स्थिति मानव के पास नहीं है । दूसरा मानव का हैसियत यही है कि मानव ‘है’ का अध्ययन करता है । चारों अवस्थायें मानव के लिए अध्ययन करने की वस्तु है । अध्ययन करने से हमें इस तथ्य का सूत्र मिलता है कि धरती में ऋतु क्रम व्यवस्था से ही अथवा प्रभाव से ही, पूरकता से ही, भौतिक क्रिया व्यवस्था से ही रासायनिक क्रिया व्यवस्था का प्रकटन इस धरती पर हो चुका है । इसी क्रम में से चारों अवस्थाओं की रचनाएं सुस्पष्ट हो चुकी हैं । सभी खनिज भी ठोस रूप में ही

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