9. मात्रा
एक-एक के रूप में जो वस्तु विद्यमान है, वस्तु का तात्पर्य वास्तविकता को व्यक्त करने से है । वास्तविकता हर वस्तु में त्व सहित व्यवस्था है । वास्तविकतायें रूप, गुण, स्वभाव, धर्म तक एक दूसरे के साथ अविभाज्य रूप में वर्तमान हैं । अर्थात् मात्रा के साथ रूप, गुण, स्वभाव, धर्म अविभाज्य रूप में व्यक्त है । व्यक्त होने के मूल में सहअस्तित्व की अभिव्यक्ति, संप्रेषणा और प्रकाशन है । सहअस्तित्व में प्रत्येक एक इकाई, व्यापक वस्तु में डूबा, भीगा, घिरा होने के रूप में स्पष्ट हो चुका है । व्यापक वस्तु संपूर्ण एक-एक में पारगामी और पारदर्शी होना भी स्पष्ट हो चुका है । प्रत्येक एक-एक व्यापक में भीगे रहने के फलस्वरूप ही ऊर्जा सम्पन्न, चुम्बकीय बल सम्पन्न होना पाया जाता है ।
प्रत्येक परमाणु ही मूल मात्रा है । ऐसे अनेक परमाणुयें अणु के रूप में, अनेक अणुयें अणु रचना के रूप में, ऐसे रचनायें पदार्थ व प्राणावस्था के रूप में होना भी पहले से स्पष्ट किया है । हर प्रजाति में दो अंश दो से अनेक अंशों से घटित परमाणुयें अपने-अपने आचरणों को स्पष्ट किये हैं ।
मूल मात्रा परमाणु होना इसलिए स्पष्ट हुआ है कि इकाई जो परिभाषित होती है यह स्वयं में व्यवस्था हो और समग्र व्यवस्था में भागीदारी करती हो । इकाई व्यवस्था में न हो ऐसी इकाईयों में भी व्यवस्था में भागीदारी की प्रवृत्ति होना पायी जाती है जैसा परमाणु अंश और भ्रमित मानव । परमाणु अंश स्वयं में व्यवस्था को प्रमाणित नहीं कर पाता अर्थात् निश्चित आवश्यकता को व्यक्त नहीं कर पाता इसलिए हर परमाणु अंश, परमाणु में भागीदारी करने, फलतः व्यवस्था को प्रमाणित करने के अर्थ में प्रवर्तनशील है । इसका प्रमाण यह है कि हर परमाणु अंश किसी न किसी परमाणु में समा जाता है । अथवा एक से अधिक परमाणु अंश एक दूसरे को पहचानते हुए परमाणु के रूप में कार्यरत हो जाते हैं, फलतः निश्चित आचरण ही व्यवस्था के रूप में ख्यात होता है । इससे पता चलता है कि परमाणु अंश एक दूसरे को पहचानते हैं और निर्वाह करते हैं, परमाणु में निश्चित आचरण स्पष्ट है ।
जैसा परमाणु अंश एक दूसरे को पहचाने बिना व्यवस्था में नहीं होता है, वैसे ही मानव मानव को पहचाने बिना व्यवस्था में जीना होता ही नहीं । मानव को पहचानने का एक ही सूत्र है - मानवत्व । मानवत्व मानव चेतना ही है, जो सर्व मानव को मानव के रूप में पहचाना जा सकता