मानव अपने को यदि मात्रा ही माने, तब भी क्या मानव की आवश्यकता स्पष्ट हुई है ? केवल मात्रा ही मानकर सोचने पर भी ऐसा लगता है, हम मानव स्वयं की आवश्यकता को निर्धारित नहीं कर पाये इसी कारण आवश्यकता अनिश्चित बनी रही और आवश्यकता के आधार पर भी हम व्यवस्था की सार्वभौमिकता को, उसके ध्रुवों को पहचान नहीं पाये । मानवत्व का एक ध्रुव मानव अपने आवश्यकता ही है, जो व्यवहार में, उत्पादन कार्य में समाधान पूर्वक व्यवस्था में भागीदारी करने के रूप में प्रमाणित होता है ।
मानव आवश्यकता स्वयं में सुस्पष्ट है - समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व । इसका प्रमाण मूल्य, चरित्र, नैतिकता रूपी मानवीय आचरण पूर्वक सफल होता है । इसको प्रयोग करके देखा गया । यह आदर्शवाद व भौतिकवाद विधि से प्रमाणित होता नहीं । इसलिए यही अर्थात् सहअस्तित्ववादी विधि से मानव लक्ष्य और आचरण अध्ययन सुलभ है । इसे सार्वभौम रूप से अथवा सर्वमानव में सफल करना ही अथवा होना ही जागृत मानव परम्परा का वैभव है। मूल्य, चरित्र, नैतिकता को प्रमाणित करने के रूप में मानव अपने से कुछ न कुछ करता ही रहा है । क्यों न ऐसा सोचा जाय कि मानव आवश्यकता के अर्थ में यह सब करना हो जाय । ऐसा निश्चय हर व्यक्ति कर सकता है । किसी आयु के अनंतर ऐसा निश्चय होने की आवश्यकता महसूस होती हुई भी देखने को मिलती है । सर्वाधिक मानव 12-14 वर्ष के आयु से 20 वर्ष के बीच सर्वाधिक रूप में, सर्वाधिक मानसिकता के रूप में समाज में न्याय, सबके अनुकूल व्यवस्था, सबको सुख मिलने की अपेक्षा, ये बनाये रहता है । परन्तु, इस मानसिकता की, किसी खेमें से जुड़कर शनैः-शनैः हत्या हो जाती है अर्थात् ये कुंठित हो जाते हैं । इसके बाद यही शेष रह जाता है, जिस संप्रदाय वर्ग मानसिकता से प्रतिबद्ध रहते हैं, अथवा माने रहते हैं उसी को हम सही मान लेते हैं, उचित मान लेते हैं । फलस्वरूप, परस्परता में द्रोह विद्रोह वाली शोषण युद्ध वाली बातों में तुल जाते हैं ।
सर्वमानव किसी आयु में सर्वाधिक लोगों के लिए अर्थात् सर्वमानव में शुभ चाहते रहे, इसके पुष्टि में सहअस्तित्व रूपी अध्ययन में इसकी संभावना सुलभ हुई है । अभी एक ही मानव, किसी आयु तक सबका अथवा ज्यादा लोगों का सुख चाहता और कुछ अधिक आयु के अनन्तर अपने परिवार, स्वयं की सुविधा संग्रह पर तुल जाने के रूप में देखने को मिलता है । इनमें सन्तुलन स्थापित करने के लिए मध्यस्थ दर्शन (सहअस्तित्ववाद) के अनुसार चेतना विकास मूल्य शिक्षा सुलभ अर्थात् सहअस्तित्ववादी शिक्षा का लोकव्यापीकरण करने की आवश्यकता