है । मानवत्व अपने स्वरूप में मानव परिभाषा का स्वरूप ही है । मनः स्वस्थता के अर्थ में ही सहअस्तित्ववादी विधि से विज्ञान विधा से भी मनःस्वस्थता का सूत्र रूप विश्लेषित और निर्धारित व्याख्यायित है । ऐसा निर्धारण, मानव लक्ष्य के अर्थ में ही होना आवश्यक है । इसी क्रम में सहअस्तित्व वादी विधि से हम समझ चुके हैं कि मानव को अपनी आवश्यकता को सुदृढ़ रूप में पहचानने की आवश्यकता है ही । इस आवश्यकता की निश्चयता अर्थात् मानवीयतापूर्ण आवश्यकता की निश्चयता-समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व रूपी मानवत्व को प्रमाणित करने के रूप में होना पाया जाता है । इसका मतलब यही है कि हम मानव, मानवीय लक्ष्य को प्रमाणित करने के क्रम में ही, मानवीयता पूर्ण आचरण को स्पष्ट कर पाते हैं । मानवीय आवश्यकता निर्धारित होना, जानने-मानने का द्योतक है । जानना-मानना ही प्रमाणित होने का आचरण ही सूत्र व्याख्या है ।

मात्रा सिद्धान्त भी मूल में इन्हीं अर्थों से अनुप्राणित रहना स्वभाविक है । इसलिए एक से अधिक अंश एकत्रित होकर कार्य करते हुए, अर्थात् आचरण करते हुए, परमाणुओं की अनेक प्रजातियाँ उनके आचरण के आधार पर पहचानने योग्य रहती हैं । इसे मानव पहचानता है, मानव सहज अर्हता की यह गरिमामय स्थिति बनती है । इसके मूल में जानना, मानना का पुट ही रहता है । इसी प्रकार प्राणकोषाओं से रचित रचनाओं में भी प्राणकोषाओं का रचना निश्चित रहना होता है । इसका प्रमाण ही है अनेक प्रजातियों की वनस्पतियों की रचना, इन सब में बीज से वृक्ष, वृक्ष से बीज तक अनुप्राणित रहना अर्थात् एक बीज से वृक्ष तक प्रेरणाएँ, वृक्ष से बीज तक प्रेरणायें, उन्हीं बीज वृक्ष में समायी रहती हैं । इन्हीं उभय प्रकार की प्रेरणा में उन प्रजाति के वृक्षों के आवश्यकता को स्पष्ट कर दिया है । इस प्रकार हम मानव किसी भी वस्तु को सुदृढ़ रूप में पहचानते हैं, उसका आधार सुदृढ़ आवश्यकता ही रहता है । इसी प्रकार चींटी से हाथी तक, कुत्ते से बिल्ली तक, गाय, बाघ, मुर्गी, कीट आदि के आचरण के बारे में मानव आश्वस्त हो गया है । इनके साथ आवश्यक विधि को मानव अपनाया भी है । यह आवश्यक विधि मानवेत्तर संसार तक प्रकारान्तर में सम्पन्न हुआ जैसा लगता भी है । जब उसी क्रम में मानव, मानव को पहचानने की स्थिति में आते हैं, तब हम संदिग्धता को महसूस करते हैं कि हम पहचान पा रहे हैं कि नहीं । इस संदिग्धता के लिए मानव परंपरा में जातिगत, विचारगत, संप्रदायगत, पद और पैसा से संबंधित विधि से विवाद बना रहता है । फलस्वरूप द्रोह, विद्रोह, शोषण, युद्ध प्रभावशील है । प्रभावशील होने का तात्पर्य ये दुर्घटनायें घटित होती रहती हैं ।

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