8. स्थिति-गति
मानव जागृति पूर्वक स्थिति-गति में प्रमाणित होना चाहता है । ऐसे प्रमाण स्वयं के भी और सम्पूर्ण के भी संबंध में आशित हैं । सर्वप्रथम इस सिद्धान्त को हृदयंगम करना होगा कि स्थिति, गति अविभाज्य है । ‘होना’, ‘गतित रहना’ इसका मूल प्रमाण है । एक परमाणु भी होने के आधार पर गतित रहता है । ग्रह गोल भी होने के आधार पर गतित रहता है । सम्पूर्ण पदार्थ संसार ‘होने’ के आधार पर ही रचना विरचना रूपी गति को बनाये रखता है । सारे वनस्पति भी होने के आधार पर ही, पुष्टि के रूप में गतित रहते हैं । संपूर्ण जीव संसार भी होने के आधार पर ही गतित रहता है । मानव जागृति होने के आधार पर ही गति को प्रमाणित करता है । इस प्रकार सहअस्तित्व रूपी अस्तित्व में नित्य प्रतिष्ठा प्राप्त संपूर्ण वस्तु स्थिति-गति के रूप में वर्तमान है। इस विधि से संपूर्ण स्थिति-गति अविभाज्य है । स्थिति में बल, गति में शक्ति अथवा स्थिति को बल, गति को शक्ति के रूप में देखा जाता है और बल और शक्ति अविभाज्य है ही ।
इस स्थिति-गति की अविभाज्यता को मानव में होने वाली जीवन क्रियाओं में भी देखा जाता है। मानव में अनुभव के रूप में स्थिति, प्रमाण के रूप में गति दिखाई पड़ती है । यथार्थता, वास्तविकता, सत्यता का बोध सहित बुद्धि ही स्थिति एवं उसे प्रकाशित करने की प्रवृत्ति के रूप में संकल्प ही गति है । बोध ही अनुभव और प्र्रमाण का अभिव्यक्ति है । अनुभव प्रमाण (जीता हुआ साक्ष्य) बोध स्वीकृति, अभिव्यक्ति सूचना; ऐसा सूचना दूसरों के अनुभव के लिए प्रयोजन है । न्याय, धर्म, सत्य के साक्षात्कार चिंतन करने के रूप में चित्त में स्थिति और इसका चित्रण के रूप में चित्रित हो पाना गति है । चित्त क्रियाकलाप का सम्पूर्ण चित्रण तुलन के रूप में अर्थात् न्याय, धर्म व सत्य रूप में स्पष्ट होना वृत्ति सहज स्थिति है, वृत्ति में सम्पन्न हुये तुलन का विश्लेषण विधि में विश्लेषित होना व सम्प्रेषित होना वृत्ति सहज विचार गति है । विश्लेषण के स्पष्ट अथवा सार रूप में मूल्य स्वीकृत होता है । इसे आस्वादन करना ही मन की स्थिति है, इसकी सार्थकता के लिये चयन क्रिया को सम्पादित करने के रूप में गतित होना हर मानव में सर्वेक्षित है । इस ढंग से मानव भी सभी प्रकार से स्थिति-गति में होना स्पष्ट होता है । इस प्रकार मानव समझदारी से सम्पन्न होने के उपरान्त प्रमाणित होना स्वभाविक होता है । इसका मतलब यही हुआ हम जब तक प्रमाणित नहीं होते, तब तक प्रमाणित होने के लिए ज्ञानार्जन, विवेकार्जन, विज्ञानार्जन कर लेना ही शिक्षा और शिक्षण का तात्पर्य है । इसके लिए