रहते ही हैं । इसी आधार पर मानव इनके साथ अपने सामाजिक महत्वाकांक्षाओं संबंधी प्रौद्योगिकी व्यवस्था को अथवा उत्पादन को समृद्ध बना पाया । यदि ये सब मानव जैसा परस्पर झगड़ालू, मतभेद, विरोध, विद्रोह करने लगते तब क्या होता ? यदि इसी प्रकार अन्य प्रकृति भी अपने आचरण में स्थिरता निश्चयता नहीं रखती तो क्या होता ? किसी भी मानव का मनाकार को साकार करने की संभावना नहीं रहती । क्रमागत विधि से तीनों अवस्थायें अपनी-अपनी यथास्थिति के अनुसार निश्चित आचरण के रूप में प्रकट रहना मानव के लिए सार्थक रूप बनी । परन्तु, मानव अन्य प्रकृति के साथ जीकर सार्थक होने के लिए, मनःस्वस्थता को प्रमाणित कर ही नहीं पाया । प्रमाणित किये बिना मानव का मानवेत्तर सभी प्रकृति के साथ पूरक होना संभव है ही नहीं । इतना ही नहीं, मानव मानव के साथ पूरक हुए बिना अन्य प्रकृति के साथ पूरक होना बनता ही नहीं ।

सहअस्तित्ववादी नजरिये से विज्ञान की क्रिया, प्रक्रिया, सार्थकता सुनिश्चित होती है क्योंकि सहअस्तित्ववादी विधि से विज्ञान का प्रयोजन मानव लक्ष्य सार्थक होने के लिए दिशा निर्धारित करना है । मानव का लक्ष्य समाधान, समृद्धि, अभय, सहअस्तित्व होने के कारण यह सर्व मानव में सार्थक होने की दिशा और शिक्षण के तौर तरीकों को निर्धारित करना ही विज्ञान और विवेक का प्रयोजन है ।

ऐसे लक्ष्य निर्धारित करने की विधि से विज्ञान का महत्व है । इस विधि से विवेक और विज्ञान का नजरिया और कार्य दोनों स्पष्ट हुआ । यह इस आशय को भी स्पष्ट करता है कि मानव का आचरण निश्चित होने के पक्ष में -

  • विज्ञान, विवेक के अर्थ में सार्थक हो जाये ।
  • विवेक और विज्ञान, ज्ञान के अर्थ में सार्थक हो जाये ।
  • ज्ञान, विज्ञान और विवेक, सहअस्तित्व के अर्थ में सार्थक हो जाये ।
  • ज्ञान सहअस्तित्व के अर्थ में हो जाये ।

यही अनुभवमूलक सहअस्तित्ववादी ज्ञान, विज्ञान, विवेक का अर्थ है ।

मात्रा मूल स्वरूप में, एक व्यवस्था और व्यवस्था में भागीदारी करता हुआ, इकाई के रूप में पहचाना जाता है । ऐसा यह एक से अधिक अंशों के गठन के रूप में आरम्भ होता है, जिसका आकार (परिणाम) निश्चित होता है । आकार (परिणाम) के निश्चितता के पक्ष में बहुत सारा

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