देखने को मिलता है । जीवावस्था के लिए प्राणावस्था की उपयोगिता इस प्रकार से देखने को मिलता है कि प्राणावस्था में ही पुरुष कोषा और स्त्री कोषा की संरचना प्रारंभ हो चुकी है । जीवावस्था में स्त्री पुरुष शरीर का रचना परस्पर भिन्न रूप में स्पष्ट हो गयी । इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्राणावस्था में कोष रचनायें जितना उन्नत रहा, जीवावस्था के लिए पर्याप्त नहीं हुआ, और विकसित होने की आवश्यकता रही, चाहे विकास क्रम ही क्यों न हो । इससे यह ज्ञान स्पष्ट हो जाता है, जीवों के शरीर रचना क्रम में स्त्री पुरुष शरीर रचना का सुस्पष्ट रूप प्रकट हो गयी । जीवों के लिए आहार, प्राणावस्था से संपन्न होता आया है, इस ढंग से पूरकता और उपयोगिता सुस्पष्ट है । इस प्रकार पदार्थावस्था, प्राणावस्था, जीवावस्था परस्पर पूरक व उपयोगी सिद्ध हुआ । सर्वप्रथम प्राणावस्था का उपयोग, किसी न किसी जीव परंपरा के शरीर रचना में, प्राणकोषाओं के तृप्ति की उपरान्त ही अग्रिम रचना विधि प्राणकोषाओं में उत्सव के रूप में उभरना स्वभाविक रहा । इसी आधार पर किसी-किसी जीव शरीर से सप्त धातुओं का समावेश और सर्वाधिक समृद्ध मेधस रचना संपन्न हुई । ऐसे शरीर में ही प्राणकोषाओं के संयोजन से होने वाली प्रजनन प्रणाली मानव शरीर की रचना होना प्राकृतिक प्रणाली रही । ऐसी शरीर रचना विभिन्न परिवेशों में अर्थात् भौगोलिक परिवेश में, विभिन्न जीव शरीरों से निष्पन्न होने की संभावना भी स्पष्ट है । इसका प्रमाण इस धरती पर अनेक नस्ल के मानव शरीर रचना का होना है । इससे भी अपने नस्ल का ध्रुव बिन्दु, मूलभूत जीव शरीर से मानव शरीर का निष्पत्ति होना स्वीकारा जा सकता है । हर नस्ल के साथ किसी न किसी रंग का होना स्वभाविक है ही । इस प्रकार से हम मानव वंश के शुरुआत के संबंध में अनुमान कर सकते हैं । हजारों, करोड़ों पीढ़ियों बीती हुई इस परम्परा में मूल संबंधों को जीवों के साथ प्राकलित कर सांत्वना पाना, इसलिए कि विकास क्रम की कड़ी के रूप में पहचान पाना, एक आवश्यकता तो रहा । इस क्रम में हर भौगोलिक परिस्थितियों में मानव विभिन्न प्रकार की नस्ल रंग के साथ अवतरित होने के उपरान्त, अपने परंपरा को सुरक्षित करने के प्रवर्तन में सफलता प्राप्त किये हैं । क्योंकि, इस धरती पर मानव की संख्या काफी बढ़ चुकी है, अन्य जीव परंपरा भी अपने रंग रूप में सुरक्षित होना दृष्टव्य है । मानव सर्वाधिक विकसित शरीर रचना संपन्न होने के आधार पर जीवन के लिए सर्वाधिक उपयोगी होना अथवा पूर्णतया उपयोगी होना स्पष्ट है । प्रमाणित होने के क्रम में ही मानव संज्ञानशीलता का अथवा संज्ञानीयता को प्रखर रूप देने का इच्छुक है ही । इसी विधि से मानव का अध्ययन ज्ञान, विवेक, विज्ञान के रूप में प्रमाणित होना एक अवश्यम्भावी घटना है । इस सहअस्तित्ववादी नजरिये से ज्ञान सम्पन्नता, विवेक और विज्ञान सम्पन्नता, मानवत्व सहित
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