मानव कुल के उपकार का तात्पर्य मानव जागृति परंपरा में, मानव सार्वभौम व्यवस्था में, मानव अखण्ड समाज में, मानव कम से कम परिवार व्यवस्था में होने से है । परिवार व्यवस्था में भी मानव, मानव के लिए अथवा परिवार के लिए प्रेरकता है ही, इस विधि से समाधान उपकार से जुड़ा ही रहता है । अथवा उपकार विधि से समाधान जुड़ा रहता है । इस प्रकार मानव में समझदारी ही देखने का तात्पर्य है, समझना ही देखना है ।
मानव मात्रा को, मानव को एक मात्रा माना जाय, उस स्थिति में इसका प्रयोजन क्या है, अपने आप में समझ में आता है । इसी प्रकार जीवों को भी मात्रा के आधार पर, वनस्पति और धरती के लिए पूरक होने के अर्थ में मानव के लिए भी पूरक होने के रूप में अध्ययन होता है । जीवों के मलमूत्र से, श्वसन से, धरती और प्राणावस्था के लिए पूरक होना पाया जाता है । क्योंकि इसमें स्वभाविक रूप से धरती में उर्वरकता बढ़ती है । जीव संसार वनस्पति संसार के अनेक रोगों को दूर करता हुआ समझ में आता है । इसका प्रमाण जिन जंगलों में जीव-जानवर न हो, उस जंगल में पेड़-वनस्पतिेयों में अनेक रोगों का होना पाया जाता है । जिनमें अनेक जीव-जानवर रहते हैं, उन जंगलों में रोग बाधा न्यूनतम होना पाया जाता है । इसे व्यक्ति परीक्षण कर सकता है । इसी क्रम में फसल संसार में भी खरपतवार, कीड़ा, पक्षियों का आवागमन विशेषकर मधु मक्खियों का संयोग, सभी फसलों में उपकारी होना पाया जाता है । इन सबका जहाँ अभाव रहता है, फसल कम हो जाती है, वहाँ फसलों को नष्ट करने वाले कीड़े बढ़ जाते हैं, हर वर्ष नये-नये रोग तैयार हो जाते हैं । इसीलिए धरती जैसे भी सजी है, उसके ओर ध्यान देने की आवश्यकता है । इसकी सजावट अपने आप में पूरकता, उपयोगिता विधि से ही हुआ है, इसके प्रमाण में पदार्थावस्था के बाद प्राणावस्था प्रकट हुआ है । प्राणावस्था में जितने भी प्रजातियाँ समाहित हैं, वे सब पदार्थावस्था के लिए पूरक, उपयोगी होना पाया जाता है । पदार्थावस्था अपने सभी प्रकार के परमाणु प्रजातियों के इस धरती पर संपन्न होने के उपरान्त ही प्राणावस्था का प्रगटन होना स्वाभाविक रहा है । इससे पता लगता है, प्राणावस्था के लिए पदार्थावस्था पूरक है और पदार्थावस्था के लिए प्राणावस्था पूरक है । प्राणावस्था उपयोगी इस विधि से है कि प्राणावस्था जब विरचित होता है, तब धरती में उर्वरकता बढ़ना शुरु होती है । जैसे-जैसे उर्वरकता धरती में बढ़ती है, वैसे-वैसे प्राणावस्था का उन्नयन इस धरती में होता जाता है । उन्नयन होने का तात्पर्य उन्नत होने से है । इसका स्वरूप उर्वरकता बढ़ते बढ़ते, झाड़ पौधों सभी में श्रेष्ठता भी बढ़ती गयी जिसको हम गुणात्मक परिवर्तन या विकास भी कह सकते हैं । जीव संसार के लिए प्राणावस्था उपयोगी होती है और जीवावस्था प्राणावस्था के लिए पूरक होना