है । जैसे उल्लू, चमगादड़ फलों को पहचानते ही हैं, हिरण घास को पहचानता है । जबकि, मानव नहीं पहचानता है । मानव के न पहचानने मात्र से वस्तु अपने को प्रस्तुत करने में त्रुटि करेगा ऐसा भी नहीं हुआ, पहचानने वाले और कोई नहीं है, ऐसा भी नहीं हुआ । हाथी, चींटी, उल्लू को भी दिखता है, इस बात पर विचार किया जा सकता है। शोध विधि से निष्कर्ष निकलता है कि उनकी-उनकी आवश्यकतानुसार आँखे बनी रहती हैं । उसी प्रकार पाँचों संवेदनाओं का आधार बना रहता है क्योंकि आँख से कुछ, नाक से कुछ, जीभ से कुछ, त्वचा से कुछ, कान से कुछ पहचानने की व्यवस्था जीवन्त आदमी में बनी हुई है । इसी प्रकार की व्यवस्था सभी जीव जानवरों में जरूर होगी, ऐसा सोचा जा सकता है । जैसा मेंढक का चमड़ी बनी रहती है, अनेक पक्षियों के पंख विभिन्न तरीके से बने रहते हैं, गाय का चमड़े और तरह के बने रहते हैं, इन सब में स्पर्शीयता उन-उनके आवश्यकता अनुसार भिन्न-भिन्न बने रहते हैं । इस प्रकार मानव शरीर की स्पर्शीयता भिन्न रहना स्वभाविक रहा । इस बात को हम शरीर ज्ञान से स्वीकार सकते हैं कि मानव शरीर रचना, पाँचों प्रकार की संवेदनाओं को खूबी से व्यक्त कर सकता है, प्रवृत्तियों को संप्रेषित कर सकता है । यह सौभाग्य सभी प्रकार के मानव शरीर में समानता के अर्थ को स्पष्ट करता है । प्रकारान्तर से, संवेदना सभी जीवों में होना पाया जाता है । इस प्रकार जीवावस्था, ज्ञानावस्था के मात्रा के साथ होने वाली क्रियाकलाप को स्पष्ट किये । हर रचना एक मात्रा है, इन मात्राओं में रूप विविधता आकार, आयतन के रूप में; गुण विविधता गति, कार्य और प्रवृत्ति के रूप में; स्वभाव विविधता चार अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न होने के रूप में, धर्म विविधता चारों अवस्थाओं में अलग-अलग होने के रूप में अध्ययनगम्य है । इस मुद्दे पर पहले भी स्पष्ट किया जा चुका है । पदार्थावस्था अस्तित्व धर्म सम्पन्न है, जिसका नाश संभव नहीं है । प्राणावस्था, अस्तित्व सहित पुष्टि धर्म संपन्न हैं, इसका प्रमाण एक बीज अनेक में परिवर्तित होने की परंपरा है । बीज वृक्ष न्याय से ही संपूर्ण प्राणावस्था है । जीवावस्था, अस्तित्व पुष्टि सहित आशा धर्मी है । हर जीव जीना चाहता है, जीने का मतलब संवेदनाओं को व्यक्त करना है । इससे अधिक कुछ नहीं है । ज्ञानावस्था में मानव अस्तित्व पुष्टि सहित सुख धर्मी है, यह भी इसके साथ स्पष्ट किया गया है । समाधान ही सुख का प्रमाण स्वरूप है । सर्वतोमुखी समाधान, मानव अपने समझदारी को प्रमाणित करने के क्रम में व्यक्त करता है । यह अभिव्यक्ति, संप्रेषित हर मानव में, से, के लिए अध्ययन, बोध, अनुभव, प्रमाण के लिए पहुँच पाता है, स्वीकार हो पाता है । इससे यह भी पता लगता है मानव सहअस्तित्व में अनुभवमूलक विधि से ही सर्वतोमुखी समाधान को व्यक्त करता है, जिससे मानव कुल का उपकार होना स्वभाविक है।

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